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February 12, 2021
How to Stay Fit During Exam Time

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February 11, 2021
सत्यता के बोध से जुड़ें

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जीवन झूठ है और मृत्यु ही सत्य है एक बार गुरु नानकदेव ने अपने शिष्यों […]
February 9, 2021
This Mauni Amavasya, Be Silent for Sometimes

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February 6, 2021
What to Do When You Hit the Rock Bottom in Life

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February 5, 2021
सद्पुरुषों व् सद्गुरुओं के सहारे वैश्विक नेतृत्व की ओर भारत

सद्पुरुषों व् सद्गुरुओं के सहारे वैश्विक नेतृत्व की ओर भारत | India towards Global Leader

सद्पुरुषों व् सद्गुरुओं के सहारे वैश्विक नेतृत्व की ओर भारत बीसवीं सदी के आरम्भ में […]
February 2, 2021
आंतरिक शांतिपूर्ण बदलाव से सही रूपांतरण लाती है गीता जब हम परपीड़न, अंदर से बदला लेने, चोट पहुंचाने, खिलाफ़त, षडयंत्र रचने में लगे होते हैं, तब बाहर से भले ही हम शांत दिखाई दें, लेकिन आंतरिक रूप से बेचैन-अशांत होते हैं। थोड़े समय के बाद अन्दर का वही षडयंत्र बाहर दिखाई देने लगता है। सूत्र भी है अशांति बांटने वाले व्यक्ति के जीवन में चारों ओर से अशांति आती ही है। जबकि फूल बांटने वाला व्यक्ति एक दिन सारे फूल बांट भी दे, फिर भी उसके हाथों में उन फूलों की खुशबु जरुर रह जाएगी। सुनिश्चित है जो कुछ आप दे रहे हैं, वह अवश्य आप तक लौटता ही है। विद्वान कहते हैं प्रभु कार्य से प्रसाद मिलता है। सद्गुणों के कारण व्यक्ति के जीवन के कष्ट व दुःख मिटते हैं। जीवन में शांति आती है। भगवान श्रीकृष्ण आगे समझाते हैं कि शांति पहले मन में आनी चाहिए। पहले आंतरिक उद्विग्नता बेचैनी दूर होनी चाहिए, फिर बाहर से व्यक्ति दिव्य होगा ही। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के प्रश्न पर उसे समझाते हैं कि एक स्थितप्रज्ञ व्यक्ति जिसने अपनी चेतना को परम ब्रह्म में जोड़ लिया हो, उसकी भाषा सांसारिक नहीं, अपितु वह मौन आंतरिक भाषा में उस ब्रह्म को स्थापित करता है। उस अवस्था में उसकी वाणी बाहर से भले प्रकट नहीं होती, लेकिन अंदर ही अंदर उसके सारे संवाद उस ओर चलने लगते हैं, जिसके प्रति वह समर्पित होता है। इस प्रकार वह परमात्मा के आसन पर, परमात्मा में स्थित, प्रभु में बैठा हुआ, चारों ओर परमात्मा की ही अनुभूति करता अनुभव करता है। साथ ही गौरवान्वित होता है कि मैं प्रभु के गोद में हूँ । श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि स्थित प्रज्ञ व्यक्ति अपने मन और बुद्धि को उस तत्व से सतत जोड़ता है, जहां उसकी चेतना स्थित हो गई। वह चलता तब भी इंद्रियों और मन से है, लेकिन उसका चलना संसार में नहीं, अपितु परमात्मा की रचना व रचयिता में वह विचरण करता है। पूज्यवर कबीर के शब्दों में कहते हैं कि ‘‘अंदर ही अंदर वह बिना पांव की यात्रा करता है, बिना पंखों के उड़ता जाता है, बिन बस्ती के देश में। जबकि बाहर से वह चलते हुए नहीं दिखाई देता। वास्तव में उसकी यह यात्रा आंतरिक यात्रा होती है। अंततः स्थितप्रज्ञ अंदर-बाहर एक सा दिखाई देता है। यही समाधि है।’’ श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब अपने भीतर को व्यक्ति संभाल लेता है, फिर वह बाहर समाधान प्राप्त करता ही है, यह समाधि ही समाधान है, जहां दुखों का समाधान हो जाता है। वह दुःख जो जन्म-जन्मांतरों से चला आ रहा है। जिसकी यात्रा जन्मों से चली और जन्मों आगे तक जा रही है। गीता में वैसे सामान्य व जटिल प्रारब्ध से उपजे सम्पूर्ण दुःखों का समाधान है। ध्यान रहे श्रीकृष्ण संदेश देते हैं कि बुद्धि और मन जब संसार में उलझा हुआ होता है, तो समस्याएं व्यक्ति की बुद्धि, मन से बड़ी हो जाती है, व्यक्ति के सामर्थ्य से बड़ी हो जाती है। वह कुल-परिवार और पितृ जनों से भी बड़ी हो जाएंगी, लेकिन जैसे ही व्यक्ति अपने चित्त-बुद्धि को ध्यान से जोड़कर अपने आपे को पहचानता है, तो तत्काल समझ आता है कि हम से बड़ी समस्याएं नहीं है। कोई दुःख हम से बड़ा नहीं है। इसलिए कहते हैं स्वयं को कृष्ण में स्थित कर स्वयं को पहचानना बहुत जरूरी है। श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि अनुशासित मन वाला वह मनुष्य जो अपनी इंद्रियों को वश में रहे है, जो राग-द्वेष से मुक्त है। राग-द्वेष अर्थात् लगाव और विरक्ति । राग जो आसक्ति देता है और द्वेष जो जीवन में विरक्ति लाता है। यही अटैचमेंट और डिटैचमेंट, लगाव और विरक्ति कराता है। पर आत्म अनुशासित मन वाला मनुष्य जब अपनी इंद्रियों को वश में करते हुए विषयगत लगाव और विरक्ति से अलग होकर आवश्यक विषयों में विचरण करता है, संसार को भोगता है, तो वह परमात्मा के प्रसाद रूप में उसे ग्रहण कर प्रसन्नता प्राप्त करता है। विशेष विचारणीय यह है कि जब हम विषयों में रहेंगे, तो ऑंखें देखेंगीं , कान सुनेंगे। आँखों में पट्टी बांध हम दुनिया में विचरण कर भी नहीं सकते। अतः श्री कृष्ण कहते हैं संसार को देखो , भोगो, चखो, खाओ, पियो। संसार में जितने भी कार्य हैं सभी करना है, उनसे भागना नहीं है, लेकिन राग-द्वेष से विरक्त रहें। विषयानिन्द्रियैश्चरन् अर्थात् दुनिया के कार्य करें, परिवार को चलायें, संतानें भी होंगी, कमाई भी करें, व्यवहार सबसे रहेगा, पर आसक्ति नहीं। यह आसक्ति व विरक्ति ही अंदर पक्षपात पैदा करता है। आसक्ति वह जो व्यक्ति को संसार के वैर-विरोध में लाकर ऽड़ा कर दे, जो संसार के जालों में बांधकर उस जगह ऽड़ा कर दें कि व्यक्ति अपने जीवन के आनंद और अपने परमात्मा को भूल जाय। अर्थात् जो कार्य जीवन में मूल रूप से करना था, वह भूल जाये और बैर-विरोध, लड़ाई-झगड़े, कलह-क्लेश में पड़ जायें। ऐसा क्लेश ही बेचैनी का कारण बनता है। अतः आवश्यकता है अंदर के शांतिपूर्ण बदलाव की, जिससे जीवन का सही रूपांतरण करें।

आंतरिक शांतिपूर्ण बदलाव से सही रूपांतरण लाती है गीता

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January 29, 2021
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January 20, 2021
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