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सद्पुरुषों व् सद्गुरुओं के सहारे वैश्विक नेतृत्व की ओर भारत | India towards Global Leader

सद्पुरुषों व् सद्गुरुओं के सहारे वैश्विक नेतृत्व की ओर भारत | India towards Global Leader

सद्पुरुषों व् सद्गुरुओं के सहारे वैश्विक नेतृत्व की ओर भारत

किसी तंत्र को व्यक्तित्व के मानवीय गुण ही श्रेष्ठता तक पहुंचाते हैं। मानव के अंतराल में पड़े सद्गुणों का सघन रूप ‘प्रतिभा’ बनकर उभरती व सद्प्रवृत्तियों का समुच्चय बनकर समाज के बीच प्रकट होती है, तो उस समाज में सहज दिशा देने की शक्ति आ जाती है।

सद्पुरुषों व् सद्गुरुओं के सहारे वैश्विक नेतृत्व की ओर भारत

बीसवीं सदी के आरम्भ में अमेरिका के उदय के साथ ही विश्व के मानचित्र में अद्भुत बदलाव आया और बीसवीं सदी अमेरिकी सदी बनी। सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान से लेकर साधन-संसाधन-आयुध नीतियों के निर्धारक के रूप में वैश्विक नेतृत्व का केन्द्रक अमेरिका बन गया। कुछ उसी प्रकार इक्कीसवीं सदी के आगे का नेतृत्व भारत के हाथ आ जाय तो आश्चर्य नहीं है। इस आशय का संकेत सन् 2000 के लगभग ‘वैश्विक भविष्य का मानचित्र’ शीर्षक से एक अमेरिकी रिपोर्ट में था।

रिपोर्ट में यहां तक था कि ‘‘भारत और चीन दोनों के नई वैश्विक महाशक्तियों के रूप में उभरने से संसार के भू-राजनीतिक मानचित्र में भी बदलाव हो सकता है।’’ ऐसे में प्रश्न उठता है कि भारत जैसे देश के लिए यहां की विशाल जनसंख्या देश उत्थान में बाधक की जगह सहायक कैसे साबित हो सकेगी?

सुदूर भविष्य को झांक सकने वाली भारत

सुदूर भविष्य को झांक सकने वाली भारत के विकास के संदर्भ में ऐसी अनेक रिपोर्ट आर्थिक विकास को लेकर भी रहीं, पर प्रश्न यह है कि क्या इक्कीसवीं सदी की महाशक्ति रूप में भारत के उभरने, भारत के हाथों विश्व की बागडोर आने के पहले विकसित व विकासशील देशों के रूप में बटे वर्तमान विश्व की रीतियां-नीतियां समाप्त हो जाएंगी? भौगोलिक आधार पर भेद-भाव रखने वाले प्रभावशाली अन्तर्राष्ट्रीय समूह विश्व सम्बन्धों के निर्धारण में अपनी भूमिका क्या कम होने देंगे? तथा भारत अपने को इतना समृद्ध और दूरदर्शी विचारधारा वाला बनाने में सफल हो पायेगा कि विश्व के नेतृत्व की पूर्ति करने में समर्थ हो?

वास्तव में देखें तो आज सम्पूर्ण विश्व की आर्थिकी चरमरा चुकी है। स्वास्थ्य सम्बन्धी अभियान में सभी देश फेल साबित हुए, बेरोजगारी का दुष्प्रभाव भी कम नहीं है। कोरोना संकट के निवारण के लिए आज वैक्सीन भले आ चुकी है, पर स्वास्थ्य संकट के पूर्णतः समाप्त होने को लेकर कोई देश आश्वस्त नहीं दिखता। यही नहीं विश्व का विकास इन दिनों समुचित दिशा के अभाव में लड़खड़ाहट अनुभव कर रहा है।

इसी क्रम में जब भारतीय चिंतकों और विश्लेषकों के वैदिक व सनातन चिंतन पर सूक्ष्म मान्यता व सही दिशाबोध रखने वाले आध्यात्मिक संतों के संदेशों, प्रयोगों पर दृष्टि डालते हैं, तो निश्चित ही भारत की सत्य-न्याय-प्रेम पर आधारित मूल चेतना भारतीय गौरव को उभारने में लग चुकी अनुभव होती है।

महर्षि अरविंद, महर्षि रमण, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द आदि की सूक्ष्म चिंतनधारायें जैसे हर मन को यह आभास दिला भी रही हैं कि विश्व मानवता की वर्तमान पीड़ादायक स्थिति कोई विश्व चेतनात्मक शक्ति दूर कर रही है। सच कहें तो भारत ऐसा देश है, जिसमें विश्वबोध की गहराई और व्यापक संवेदनात्मक अनुभव समाहित है। यह देश अतीत में अनेक बार अपनी शाश्वत चेतन धारा के सहारे ऐसी समस्याओं का समाधान दे भी चुका है।

भारतीय सनातन ऋषि चेतना का संदेश

भारतीय सनातन ऋषि चेतना का संदेश है कि ‘‘किसी तंत्र को व्यक्तित्व के मानवीय गुण ही श्रेष्ठता तक पहुंचाते हैं। मानव के अंतराल में पड़े सद्गुणों का सघन रूप ‘प्रतिभा’ बनकर उभरती व सद्प्रवृत्तियों का समुच्चय बनकर समाज के बीच प्रकट होती है, तो उस समाज में सहज दिशा देने की शक्ति आ जाती है।’’ परब्रह्म परमात्मा का प्रतिनिधि गुरु भी जब मदद करता है।

तब मनुष्य की संकीर्ण स्वार्थपरतायें कटती हैं और उसमें परमार्थ जगता है। ऐसी प्रतिभायें तब स्वार्थ में नहीं जीती। अपितु सृजन के संकल्प के साथ परमात्मा के नवनिर्माण में जुट जाती हैं। इस अवसर पर समाज में सद्गुणों से भरे हर व्यक्ति की अच्छाई के एक-एक अंश के समन्वय से जो समूह खड़ा होता है। उसके सुदृढ़ प्रयासों से ही युग समस्या से निजात पाया जाता है और युग नेतृत्व जन्म लेता है।

व्यापक भाव से देखें तो इसी उद्देश्य पूर्ति के लिए देशभर में कार्य कर रही गुरु सत्तायें, संतगण एवं ऋषि सत्तायें देवात्मा हिमालय से शक्ति लेकर देश-विदेश के हर भावनाशील को जगाने में लगी हैं।

पूज्य महाराजश्री कहते हैं कि

‘‘श्रेष्ठ सद्गुरु जब शिष्यों से अपनी क्षमता-प्रतिभा, धन, साधन, भगवान के काम में, सेवा में लगाने की बात कहते हैं, तो वे हमें उसी जागरण के लिए अंदर की पवित्रता से भर रहे होते हैं। ताकि वे युग की आवश्यकता को अनुभव कर सकें। विराट विश्व समाज को परमात्मा का स्वरूप मानकर उसकी सहायता के लिए खड़े हो सकें। हर अंतराल की गहराई में आदर्शों पर चलने के लिए बेचैनी जगाकर समय की जरूरत को समझा सकें।

पौराणिक काल के अनेक कथानक इस तथ्य से भरे पड़े हैं। जैसे समुद्रमंथन, हिरण्याक्ष के बंधन से पृथ्वी की मुक्ति आदि महान घटनाएं सत्प्रवृत्तियों को संगठित-एकत्रित करके ही हुईं।

सम्पूर्ण देवताओं के तेज से महिषमर्दिनी दुर्गा का अवतरण ‘दुर्गासप्तशती’ रूप में प्रमाण देखें तो भगवान शंकर के तेज से देवी का मुख, यमराज के तेज से देवी के सिर के बाल बने, विष्णु भगवान के तेज से भुजाएं, चंद्रमा से दोनों स्तनों, इंद्र के तेज से कटिप्रदेश, वरुण से जंघा और पिंडली, पृथ्वी के तेज से नितंबभाग, ब्रह्मा से दोनों चरण, सूर्य से उंगलियां, वसुओं से हाथ की उंगलियां, कुबेर से नासिका, दांत प्रजापति और तीनों नेत्र अग्नि के तेज, भौंहें संध्या, कान वायु के तेज से उत्पन्न हुए। इसीप्रकार देवताओं के एक-एक अंश से मानवता में देवत्व के अभ्युदय हेतु उस कल्याणमयी देवी के रूप में ऐसी चैतन्य शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ, जिनसे युगीन समस्या का समाधान निकला। पर यह सब तत्कालीन ऋषि यों व सद्गुरुओं के संकल्प से संभव हुआ।

भारत गुरुओं का देश है

अतः इन्हीं से भारतीय जनमानस के व्यक्तित्व में अंतर्निहित श्रेष्ठ सद्शक्तियों को सार्थक अभिव्यक्ति मिलेगी। गुरुसत्ता की भावचेतना में उत्पत्ति, स्थिति, ध्वंस, निग्रह एवं अनुग्रह का सिलसिला सदा चलता रहता है। विगत लगभग एक सदी से यहां के संतों-गुरुओं द्वारा वे आध्यात्मिक संसाधन जुटाये गये, मनोभाव गढ़े गये। अब यही सब चैतन्यता पायेगा। बस जरूरत है राष्ट्र साधक मानवता व धर्म-संस्कृति के आराधक सद्गुरुओं के प्रति जन-जन में श्रद्धा-समर्पण भरी भावना जगाने की। जिससे देश का सम्पूर्ण जनमानस उनसे जुड़कर अपने सहड्डदल कमल में आत्म जागरण व विश्व जागरण का बीजारोपण कर सके।

गुरुगीता भी कहती है

गुरुगीता भी कहती हैµगुरु का स्मरण, ध्यान करने से व्यक्तित्व में युग परिवर्तन के बीज सहज अंकुरित होते हैं। साधक को दृष्टि व दिशा भी मिलती है। इसीलिए अब तक हुई भारत सहित विश्व धरा की क्रांतियों में गुरुओं का ही योगदान रहा है। भारत के इस पुनरोत्थान में पुनः वही होने जा रहा है और वह अमेरिका सहित विश्व की अनेक रिपोर्टें सत्य साबित हों तो आश्चर्य नहीं। बस हम सबको इस महान कार्य हेतु अंदर के सद्गुण को पहचानना होगा, उसे परिष्कृत, विकसित करते रहना होगा। सूक्ष्म रूप से परमात्मा भी हर मन में सृजन-नेतृत्व की दिशा में चलने का वैसा साहस पैदा कर रहा है।

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