जहां धर्म जीवन मूल्यों व मनुष्यता का विषय नहीं, वहां की संस्कृति अध्यात्महीन होगी ही। इसके विपरीत भारत सदियों से गुणियों, ज्ञानियों सद्गुरुओं का अनुकरण करने को कहता आया है:-
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्त्देवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
यहां के ऋषि कहते हैं कि जो अपने से संस्कारों, गुणों एवं ईश्वर स्वीकृति में श्रेष्ठ हो, उन्हीं को प्रमाण मानकर अनुकरण एवं आचरण करना चाहिए, यह श्रेष्ठता भारत में ही है। अर्थात यहां सब एक दूसरे के लिए जीते हैं। एक दूसरे से सीखते हैं। इसीलिए यहां का स्वभाव ही गणतंत्रीय है।
अनेक संतो ने इसी को बढ़ावा भी दिया। वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, पुराण, ग्रन्थ, सन्तों की पवित्र वाणी ऐसे अद्भुत ग्रन्थ हैं। जिनमें गण प्रतिष्ठा एवं गण में जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठापरक नीतियां निहित हैं। जिन लोगों ने ऐसी नीतियां दीं, उनमें विदुर, चाणक्य, बृहस्पति, याज्ञवल्क्य, वशिष्ठ, आदि ऋषियों का, आचार्यों और चिन्तकों का नाम आता है। शुक्राचार्य, बृहस्पति आचार्य, विदुर, चाणक्य आदि के ऐसे ही ग्रन्थ हैं।
चौबीस वर्षों तक भारत देश की भूमि पर जिस व्यत्ति ने राज्य किया, पर वह स्वयं वैभव से दूर कुटिया में बैठकर तप करता रहा। वास्तव में उसका जीवन व नीतियां दोनों हीं गणतंत्रीय ही रही।
चाणक्य अपनी गणतंत्र नीति में यह भी बताते हैं कि सद्गुण अगर परिवार में आ जायें तो मानना चाहिए कि दुनिया की सबसे बड़ी दौलत हमारे पास आ गई। इसमें सबसे पहला गुण धार्मिक तत्परता। धर्म में व्यत्ति को तत्पर होना चाहिए। हर परिवार का व्यत्ति अपने परिवार में इस बात का पूर्ण ध्यान रखे कि मेरे घर में पाप की कमाई न आए। मेरा अन्न पवित्र हो, मेरा धन पवित्र हो। मेरे परिवार में किसी का भी व्यवहार ऐसा न हो जो अधार्मिक हो। इसी को कहते हैं अपनी आत्मा के विपरीत व्यवहार न किया जाए।
उपयुक्त विश्लेषण के आधार पर हम कह सकते हैं कि मनुष्य की वृत्ति से, जीने के अन्दाज से ही स्वर्ग-नरक बनता है। आदमी अपने अन्दर ही अपना स्वर्ग-नरक लिए बैठा है। इसलिए जहां वो बैठेगा, वहीं स्वर्ग-नरक भी बना सकता है। देवताओं के गुण इन्सान के अन्दर आ जाएं तो स्वर्ग बन जाए दैत्यों के गुण आ जाए तो नरक बन जाए। उम्र जानने के लिए हो सकती है, गुण ग्रहण करने के लिए हो सकती है शास्त्रेषुविज्ञानता और शास्त्र में विज्ञानी, ज्ञान प्राप्त करें।
अपने स्वरूप को सुन्दर बनाए, हर समय खुश रहे,सन्तुष्ट रहे, तो उसका सम्पूर्ण गण अर्थात परिवार भी सुगढ़ होगा। ऐसे ही गणों का समुच्चय है गणतंत्र। इसके विपरीत सुन्दर बनाएं ‘शिव भजनता’ चाणक्य कहते है कि यही नीति है गणतंत्र की। इन्सान को ठीक परमात्मा की तरह राष्ट्र भक्त बनना चाहिए।
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