fbpx

अखण्डित श्रध्दा है जीवन धर्म

अखण्डित श्रध्दा है जीवन धर्म

अखण्डित श्रध्दा है जीवन धर्म

जन्म सार्थक तब होता है, जब गुरु मिलता है, अनंत-अनंत प्रेम से भरपूर गुरु जब कृपा करता है, पर उस गुरु को पकड़कर रखने की डोर श्रद्धा है।

अखण्डित श्रध्दा है जीवन धर्म

जन्म सार्थक तब होता है, जब गुरु मिलता है, अनंत-अनंत प्रेम से भरपूर गुरु जब कृपा करता है, पर उस गुरु को पकड़कर रखने की डोर श्रद्धा है। जब शिष्य गहरी श्रद्धाभावना से गुरु को पुकारता है, तो वह पास आकर शिष्य को उसके अहम से, द्वंद्व से, विकारों से बाहर निकालता है, सम्भालता है, आगे बढ़ने की शक्ति देता है। इस प्रकार गुरु की कृपा प्राप्ति होती है। गुरु के प्रति यह श्रद्धा ही शिष्य को उच्च धरातल तक पहुंचाती है। जीवन में सम्पूर्ण आध्यात्मिकता का आधार यही श्रद्धा है। श्रद्धा का कार्य है साधक को बाधाओं के पार ले जाना।

यद्यपि श्रद्धा को प्रगाढ़ होने में वर्षों लग जाते हैं, यहां तक कि कई बार परीक्षा काल में शिष्य गुरु की निकटता छोड़ने का मन तक बना लेता है, पर श्रद्धा ही है जो उसे ऐसा करने से रोकती है। इस प्रकार जब शिष्य इन्हें भी पार कर जाता है, तो वह असली शिष्य बन गुरुकृपा का अधिकारी बनता है। इन परीक्षाओं के बीच से ही शिष्य का शिष्यत्व सफल होता है। इस उच्च स्तर की श्रद्धा से गुरु की कृपा बरसती है और शिष्य के अस्तित्व की सूक्ष्म गहनतम परतें खुलती हैं। परिणामतः गुरु शिष्य एकाकार होता है और गुरु की सम्पूर्ण ऋद्धियां-सिद्धियां उस शिष्य में फलीभूत होती दिखती हैं।

श्रद्धया सत्य माप्यते’

अर्थात श्रद्धा में सत्य का विराट आयाम समाहित है। श्रद्धा के जागरण से शिष्य के जीवन से अहम का विसर्जन होता है, सत्य की प्रतिष्ठा होती है। इसीलिए सभी श्रद्धा की तलाश में हैं, जिसके सहारे अपने आप को खो सकें। शिष्य का सम्पूर्ण श्रद्धा में ही विसर्जित होता है। जीवन की प्रत्येक ऊँचाइयां छूने के लिए श्रद्धा आवश्यक है, जीवन से जुडे़ हर उद्देश्य को पाने के लिए उस लक्ष्य के प्रति श्रद्धा आवश्यक है। यह साधक के अंतःकरण में नित नई ऊर्जा पैदा करती है और वह अपने लक्ष्य की ओर सहज बढ़ता जाता है।

इसके विपरीत शिखर के निकट पहुंचे व्यक्ति में यदि श्रद्धा टूट जाय तो वह वहीं ठहर जायेगा, सम्पूर्ण मेहनत उसकी निस्सार हो जायेगी। फिर अपने लक्ष्य के प्रति प्रेम नहीं रख पायेगा और निराश हो बैठेगा। क्योंकि सफलता के लिए व्यक्ति का लक्ष्य के प्रति प्रेममय होना आवश्यक है, यही नहीं अपने प्रति, अपनों के प्रति, सम्पूर्ण जड़-चेतन के प्रति श्रद्धा के जगने पर ही वह प्रेममय हो पाता है, तब परमात्मा उससे दूर नहीं रहता है। जीवन में श्रद्धा पैदा होती है, तो अंतःकरण से एक ही धुन उठती है, त्याग, त्याग, त्याग। समर्पण, विसर्जन, विलय, सर्वस्व न्यौछावर। सेवा, सेवा, सेवा।

श्रद्धा के अभाव में सामने खड़ा परमात्मा भी व्यर्थ है।

श्रद्धा जितनी गहरी होगी, गुरु उतना ही विराट अनुभव होगा। महाभारत के बीच अर्जुन कृष्ण में अतल गहराई तक डूब गये, तो उनमें अर्जुन को विराट परमात्मा के दर्शन होने लगे और आगे का मार्ग भी स्पष्ट हो गया कि ‘‘करिश्ये वचनम् तौ’’। अन्यथा वही कृष्ण अर्जुन को श्रद्धा के अभाव में एक उपदेशक मात्र लग रहे थे। अर्जुन की श्रद्धा ने ही कृष्ण के प्रति ‘‘कृष्णं वंदे जगद्गुरु’’ का प्रणम्यभाव जगाया। वास्तव में श्रद्धा सर्वप्रथम शिष्यत्व ही जगाती है, तत्पश्चात् सामने वाले में अर्थात् जिसके प्रति श्रद्धा है, उसमें गुरुत्व प्रकट हो उठता है।

शास्त्र के अनुसार

शास्त्र कहता है कि श्रद्धा रूपी सम्पत्ति की रक्षा करना हर शिष्य का काम है और शिष्य की अगाध श्रद्धा में फल-फूल लगाना गुरु का काम है। प्रत्येक शिष्य के लिए आवश्यक है कि वह श्रद्धा की अग्नि को गुरु सेवा के अवसरों का उपयोग करते हुए बुझने न दे। दूसरे शब्दाें में कहें तो गुरु के प्रति जितनी गहरी श्रद्धा होगी, उतनी ही शिष्य में अंदर से गुरु इच्छा पूरी करने, गुरु निर्देशित सेवा करने की हूक उठेगी। सेवा, साधना, दान के भाव जगेंगे और ज्ञान फलीभूत होता जाएगा। पर यह सब दिखावा मात्र न हो। शिष्य जितना श्रद्धावान होगा, सरल होगा, उतनी ही शांति आयेगी। इसीलिए तो हर गुरु की परमात्मा से प्रार्थना रहती है कि हमारे शिष्य का अंतःकरण श्रद्धा से भरा हो, जिससे उसके जीवन व घर-परिवार में सुख-सौभाग्य एवं आध्यात्मिकता बढ़े।

श्रद्धा सभी कठिनाइयों से पार पहुंचा सकती है

वास्तव में गुरु एक संकल्प है, गुरु को मनाने व संकल्प को साधने के लिए एक मात्र तत्व है ‘श्रद्धा’। श्रद्धा जगी कि गुरु निहाल करना शुरू कर देता है। भौतिक जगत के संकल्पों के प्रति श्रद्धा जगी तो सफलतायें मिलने लगती हैं। श्रद्धा ही गुरुत्व को पकड़ने का मूल है। इसके जगते ही अन्दर का सद्गुरु जगने लगता है। जब श्रद्धा शिष्य के हृदय में हो और गुरु दिल में बसा हो, तो बाहर से नाराज दिखाई देने वाला गुरु भी आपका हित ही करेगा। श्रद्धा में इतनी ताकत है जो हर समस्या को बेधने की शक्ति रखती है, इसीलिए शास्त्र व गुरु सभी अंतःकरण में श्रद्धा बढ़ाने की दृष्टि देते हैं। कहते हैं एक बार गुरु कमजोर पड़ सकता है, लेकिन यदि शिष्य की अपने गुरु के प्रति श्रद्धा मजबूत है, तो वह श्रद्धा उसे कठिनाइयों से पार पहुंचा देगी।

श्रद्धा अखण्डित रहे

साधना के क्षेत्र में शिष्य के रोम-रोम से श्रद्धामयी हूक देखकर गुरु अपने शिष्य पर सब कुछ उड़ेल डालता है। परमपिता परमात्मा शिष्य की उंगलियों पर नाच उठता है। मूर्तियां देवमय बन साथ-साथ नृत्य करने लगती हैं, साथ भोजन करने लगती हैं, वाणी फलित हो उठती है। जीवन का रोम-रोम दिव्य अहसास से भर उठता है। सफलता की दिशा में प्रयास स्वतः प्रारम्भ हो जाते हैं। श्रद्धामयी इस दिव्य अवस्था को पाने वाले के सानिध्य में क्रूर से क्रूर अंतःकरण भी पिघल उठता है। सम्पूर्ण अहम पिघलकर दिव्य भावों में बह उठता है, जीवन से रूपांतरण के नये नये आयाम उद्घाटित होते हैं और जीवन के गहन अतल में जन्म लेती है विलक्षण शांति। इस श्रद्धामय शांति के सहारे जीवन में धन, वैभव, समृद्धि, सम्मान, प्रतिष्ठा के भंडार भर उठते हैं, इसीलिए सम्पूर्ण संसार अनन्तकाल से इसी श्रद्धा की तलाश में है। हर मानव के अंतःकरण में यह श्रद्धा अखण्डित रहे, क्योंकि यही जीवन का मूल धर्म है।