सबके हित में अपना हित समझें
हम पारस्परिक बैर भाव को त्याग कर सृहृदय, मनस्वी तथा उत्तम स्वभाव वाले हों। एक दूसरे को सदैव प्यार की दृष्टि से देखें, त्यागपूर्ण जीवन जियें, तभी हम सुखी रह सकेंगे। भारतीय दर्शन में त्यागमय सबके हित में अपना हित समझने वाले जीवन को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। अक्सर देखा जाता है लोगों में दान में भी किसी पर अहसान करने का भाव रहता है, अपने अहंकार के पोषण की अनुभूति होती है, बदले में नाम, यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि की आकांक्षा रहती है। ट्टषि कहता है त्याग तो दान से भी ऊपर की स्थिति है, जो दुःख, मोह, क्रोध, अहंकार आदि सबसे परे है। सच कहें तो पारस्परिक बैरभाव को त्यागना जीवन, परिवार व समाज की उन्नति का मुख्य आधार है।
जब मन में द्वेष भाव समाप्त हो जाता है, तो वहां पवित्रता और निर्मलता का वास होता है। इससे मनुष्य के हृदय में लोगों के प्रति सद्भावनामय त्याग जागृत होता है और बदले में उसे सबका सहयोग मिलता है, लोक प्रतिष्ठा तो बढ़ती ही है।
वास्तव में समाज हो या परिवार जब तक सबमें हृदय की एकता, मन की एकता, द्वेष का अभाव तथा प्रेम एवं सद्भाव का व्यवहार नहीं होगा, सुख शांति का वातावरण बन ही नहीं सकेगा। लक्ष्य एक होने पर भी यदि आपस में द्वेष है, कलह है, ईर्ष्या है और मनोमालिन्य है तो काम कैसे चलेगा?
सबके मन व हृदय एक होने चाहिए तभी आपस में सहयोग एवं सहानुभूति का वातावरण बनेगा। सच्चे मन से हार्दिक सहयोग मिलने पर ही लक्ष्यपूर्ति संभव हो सकेगी। इसी से जीवन में प्रेरणा और क्रियाशीलता आती है, पारस्परिक प्रेम और सहानुभूति की अभिवृद्धि होती है। घनिष्ट प्रेम का प्रवाह ही लोगो में अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर एक दूसरे का हित चिंतन करने को प्रेरित करता है।
जिस प्रकार माँ अपने बच्चे को, गाय अपने बछड़े को दुलारती व पुचकारती है तथा उसकी भलाई के लिए संसार का बड़े से बड़ा संकट भी स्वयं झेलने को तैयार रहती है, उसी भावना को यदि हम आपसी व्यवहार में उतार सकें तो यह संसार स्वर्ग बन जाए। यह तब सम्भव हो पायेगा जब परिवार हित, समाज हित और राष्ट्र हित में सब लोग अपना भी हित समझेंगे। आइये! हम सब यह संकल्प अंदर से जगायें।