उन दिनों महाराष्ट्र सहित देश भर में नाथ पंथ का प्रभाव था। नाथ पंथ ‘‘अलख निरंजन’’ की योगपरक साधना का समर्थक तथा बाह्य आडम्बरों का कठोर विरोधी था। जबकि नामदेव पंढरपुर के ‘विट्ठल’ की प्रतिमा में ही भगवान को देखते थे। पर विसोबा खेचर के सम्पर्क में आने के बाद उनके जीवन में परिवर्तन आया और उनमें कण-कण में भगवान का भाव जागा। इस प्रकार नामदेव की साकार प्रेमभक्ति में ज्ञान का समावेश हो गया। आज वे ‘‘वारकरी’’ सम्प्रदाय के प्रमुख संत माने जाते हैं।
नामदेव के जीवन में अनेक चमत्कार घटित हुए। इन्होंने तत्कालीन सुल्तान की आज्ञा से एक मृत को जिलाया था। यह कार्य आपने हजारों विपरीत भाव राने वालों के सामने सनातन परम्परा की महिमा प्रतिष्ठित करने के लिए किया था। कहते हैं नामदेव की भक्ति से पत्थर भी पिघल पड़ते थे। एक बार वहीं के नागनाथ मंदिर के सामने ये कीर्तन कर रहे थे। किसी ने आपत्ति उठाई तो वे मंदिर के पश्चिम की ओर चले गये। तभी मंदिर के द्वार का मुख पश्चिम में हो गया। तब उन लोगों ने नामदेव जी से क्षमा-प्रार्थना की। इस पर नामदेव जी ने इतना ही कहा कि परमात्मा का कोई एक द्वारा नहीं होता।
बिसोबा खेचर से दीक्षा लेने के पूर्व तक आप समर्पित सगुणोपासक थे और पंढरपुर के विट्ठल (विठोबा) भगवान की उपासना किया करते थे। बाद में निर्गुण भक्ति जागृत हुई, पर सगुण-निर्गुण का इनमें कोई भेदभाव नहीं था। उन्होंने मराठी में कई सौ अभंग और हिन्दी में सौ के लगभग पद रचे। इनके पदों में हठयोग, कुण्डलिनी-योग-साधना और प्रेमाभक्ति (विह्नलभावना) दोनों हैं। संतनामदेव कर्मकाण्ड, व्रत आदि में उलझे समाज को ईश्वरी चेतना से जोड़ना चाहते थे। जिससे भक्ति जीवन साधना का विषय बने। इसीलिए कबीर के समान ही नामदेव जी की वाणी में भी व्रत, तीर्थ आदि बाह्याडंबर के प्रति उपेक्षा तथा भगवन्नाम एवं सतगुरु के प्रति आदर भाव देखने को मिलता है। इस प्रकार कबीर, सूर, तुलसी की तरह संत नामदेव को भी यश शरीर की प्राप्ति हुई, जो भगवद् व गुरुकृपा का परिणाम थी। हम भी गुरु भक्ति, भगवद्भक्ति जगायें और जीवन को यशस्वी बनायें।
संत नामदेव जी ने महाराष्ट्र से लेकर पंजाब आदि उत्तर भारत में ‘हरिनाम’ की प्रतिष्ठा की। नामदेव का जन्म सन् 1270 में महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ। नरसीबामणी गांव में छीपा परिवार में जन्मे नामदेव पिता दामाशेटी और माता गोणई देवी दोनों भगवान विट्ठल के परम भक्त थे। इस प्रकार नामदेव जी को भक्ति विरासत में मिली। उनका सम्पूर्ण जीवन ईश्वर चिंतन मानव कल्याण के लिए समर्पित रहा। आपने भक्ति द्वारा जनता को समता और प्रभु-भक्ति का पाठ पढ़ाया। इनके रचित गीत आज भी प्रेममय भक्ति की हिलोर पैदा कर रहे हैं। ये संवत 1407 में समाधि में लीन हो गए। महाप्रयाण से तीन सौ साल बाद श्री गुरु अरजनदेव जी ने उनकी वाणी का संकलन किया। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में भी उनके 61 पद, 3 श्लोक 18 रागों में संकलित है। आइये नमन करें ऐसे संत को।
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