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धर्म सदैव ही धारण करने योग्य होता है

धर्म सदैव ही धारण करने योग्य होता है

religion is always worth holding

‘‘धारणा धर्म इत्याहु धर्मः धार्यते’’ अर्थात जो गुण, स्वभाव, अच्छी चीजें मनुष्य को मनुष्य बनाए रख सकें, जिसके द्वारा लोगों का कल्याण हो वही धर्म है। इसीलिए कहा गया है कि धर्म सभी लोगों के जीवन को आसान बनाता है।

धर्म सदैव ही धारण करने योग्य होता है  (Religion is always worth holding)

‘‘धारणा धर्म इत्याहु धर्मः धार्यते’’ अर्थात जो गुण, स्वभाव, अच्छी चीजें मनुष्य को मनुष्य बनाए रख सकें, जिसके द्वारा लोगों का कल्याण हो वही धर्म है। इसीलिए कहा गया है कि धर्म सभी लोगों के जीवन को आसान बनाता है। मनुस्मृति ६.९१ में मनु महाराज इसी का विस्तार कुछ इस तरह करते हैं :-

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकंधर्मलक्षणम्।।

धृति, क्षमा,दया, अस्तेय, पवित्रता, इन्द्रिय निग्रह, सत्य और क्रोधी न होना आदि धर्म के दस लक्षण हैं।

वेदव्यास जी ने भी कही- आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् इति धर्मय”

यदि हम इनका विस्तार करें तो कह सकते हैं कि  ‘‘जैसा आप अपने लिये चाहते हैं वैसा दूसरों के साथ करें यही धर्म है’’

धार्मिक कब हो जाओगे?

पुराणों में इससे भी आगे जाकर कहा गया कि जैसा आप अपने लिए, अपने प्रिय पुत्र व पुत्री के लिए चाहते हैं, वैसे ही जब आप दूसरों के लिए कार्य करने लग जाओगे, तब आप सच्चे अर्थों में धर्मात्मा कहलाओगे।अर्थात जब आपके जीवन में करुणा, क्षमा आएगी, तो निश्चित ही तुम धार्मिक हो जाओगे।

धर्म धारण करने की यह आदिकालीन परम्परा है। हर व्यक्ति के व्यक्तित्व से उसका इसी स्तर का धर्म अभिव्यक्त होता था, वह सामान्य नागरिक हो या कोई विशिष्ट व्यक्तितव।

धर्ममय था सभी ऋषि-मुनियों का जीवन

देखा जाये तो महाभारत कल के पूर्व का जीवन समाज में धर्म-कर्त्तव्य, उत्तर दायित्व का था, जीवन शैली से लेकर शिक्षा-दीक्षा से जुड़ी सभी विद्यायें धर्ममय, न्यायमय थी। धर्ममय थे सब ऋषि-मुनि धनुर्वेद विद्या से लेकरअस्त्र-शस्त्र संचालन सहित सारी विद्याओं के जनक शिवजी माने गये हैं। इसके बाद भारद्वाज ऋषि, परशुराम, विश्वामित्र आदि जो भी ऋषि मुनि, ज्ञानी, ध्यानी आये, उन्होंने वेद के तत्त्कालीन धर्म स्वरूप का इस दुनिया में विस्तार किया।

दूसरे शब्दों में धनुर्वेद के माध्यम से अस्त्र शस्त्र संचालन और उनका निर्माण आदि का विस्तार युगधर्म के अनुरूप हुआ। हमारे देश में ऋषि मुनि राजनीति, कूटनीति के साथ उनके प्रयोग की विधियां भी लोगों को सिखाते थे। यही नहीं षड्यंत्र के 6 या 10 यंत्र आदि अनेक तरह की विधियां भी धनुर्वेद के साथ-साथ ही उस समय सिखाई जाती थीं।

जो जिस क्षेत्र के योग्य था, उसके द्वारा इन्हें सीखना और सिखाना तत्कालीन धर्म था। सभी अपने कर्म में पूर्ण ईमानदारी बरतते थे। यद्यपि कुछ मूल भूत शिक्षाएं तो सबको समान दी जाती थीं, इसके बाद तत्कालीन योग्यता के आधार पर किसी विषय में विशेष रूचि रखने वाले को विशेषज्ञ बनाया जाता था, अलग तरह की विद्याएं भी सिखाई जाती थीं।

चिकित्सा शास्त्र, शल्य चिकित्सा में विशेषज्ञता के लिए धन्वंतरी से लेकर सुश्रुत, चरक, वाग्भट, अश्विनी कुमार जैसे अनेक-अनेक ऋषियों के नाम अग्रगण्य हैं।यह सब अपने-अपने क्षेत्र में विशेषज्ञ थे। इस तरह हमारे देश का बहुत बड़ा चिकित्सा व आरोग्य शास्त्र सामने आया।


विद्याओं-शास्त्रों के मूल जनक भगवान शिव

सभी विद्याओं के मूल में भगवान शिव थे। रसायन शास्त्र के तहत रसायन को पूर्ण स्वरूप से देने में हारीत नागार्जुन, सुषेण वैद्य, शुक्राचार्य थे। सुषेण जैसे वैद्य को संजीवनी बूटी से लेकर संजीवनी विद्या का ज्ञान था, जिसका लाभ असुर लोग भी लेते थे। इसी प्रकार वास्तुकला भी हमारे देश की विशेष विद्या थी।वास्तुकला में शतोधन, विश्वकर्मा जैसे देवों और मय जैसे दानवों का नाम था, जिनके अंदर अद्भुत शक्तियां थीं, विश्वकर्मा इंद्र के सहयोगी थे।देश का राग रागनी और स्वर शास्त्र में नारद मुनि निष्णात थे।

उसी में उद्दालक, उपमन्यु, गंधर्व का नाम आता है। पशुपालन विभाग के ऋषि उपमन्यु, उत्कच, महानद ऐसे अनेक आते हैं।

शास्त्र रचना करने वाले लोगों की भी एक परंपरा थी। लेखन, ज्ञान के विकास, शास्त्रों की रचना करने में अग्नि, वायु, अंगिरा, ब्रह्मा, व्यासऋषि, सूत और वैशम्पायन सहित अनेक विशेष ऋषि हुए हैं। उस दौर में तपस्वियों की परम्परा भी दिखती है, तप शक्ति के द्वारा अपने आपको ऊंचा उठाने वाले ऋषिमुनियों ने अपने आपको और देश के आत्मबल को शक्तिशाली बनाया।

इसमें च्यवन ऋषि, दधीचि सहित असंख्य नाम आते हैं। ऐसे ऋषियों की एक लम्बी श्रृंखला थी। तपस्वियों ने ही भारत को दर्शन शास्त्र दिये, जिसमें गौतम, कपिल, कणाद, जैमिनी, पतंजलि आदि ऋषिआते हैं। पतंजलि ने भारत को योग विज्ञान दिया। इन सम्पूर्ण विद्याओं-शास्त्रों के मूल जनक भगवान शिव ही माने जाते हैं।

धर्म कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व हीनता का प्रवेश है महाभारत काल

इस प्रकार हमारे देश में ज्ञान, चिकित्सा, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, आयुध, शस्त्र-शास्त्र से लेकर तप आदि का सर्वाधिक ऊंचा आदर्श था। जैसा व्यवहार दुनिया से चाहते हो वैसा ही करना धर्म है। कह सकते हैं सम्पूर्ण तंत्र धर्ममय थे, लोक कल्याणकारी भावों से भरे थे, परिणामतः सम्पूर्ण विश्व उन्नतशील भारत के इस ज्ञान विज्ञान को लेकर लालायित था।

अनीति-अधर्म से समाज को उबारने के लिए हुआ श्री कृष्ण का जन्म

लेकिन महाभारत काल आते-आतेसभी अधर्म के दायरे में आ गये और हर तरफ लोगों के धर्म-कर्त्तव्य में शिथिलता आने लगी।इसका प्रभाव समाज की अवनति से लेकर व्यक्ति के चिंतन चरित्र में गिरावट एवं परिवार में लोभ, लालच के चलते विखराव के रूप में देखने को मिलने लगा।