सत्य स्वरूप सत्ता को पहचानों
भगवान के भाव में जीवन जीना ही मनुष्य जीवन का परम उद्देश्य है। भगवान के भाव में जीने का अर्थ है अपने जीवन की प्रत्येक गतिविधि में उसके अस्तित्व का एहसास रहे। गुरुदेव परम पूज्य सुधांशु जी महाराज फरमाते हैं अपने जीवन के कर्त्तव्यों का निर्वाह ईमानदारी से करो, किन्तु अर्न्तदृष्टि उस परमपिता के स्वरूप, शक्ति और सत्ता पर टिकी हो अर्थात् उसकी परमसत्ता को स्वीकार करें। कैसे कबीर जी के दोहे सुनाकर उन्होंने हमें समझाया गया कि जैसे हिरण मधुर आवाज को सुनकर ठहर जाता है, उसके पीछे शिकारी भाग रहा है, उसकी उसे परवाह नहीं, वह तो मधुर आवाज के साथ जुड़ा रहा और जान गंवा बैठता है। वैसे भगवान के लिये जान भी गवानी पड़े तो गंवा दो।
महाराजश्री गरीब का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि उसके पास कुछ पैसे हैं, उसका ध्यान अपनी जेब पर ही रहता है, सोता है, आराम करता है, उसका हाथ अपनी जेब पर ही रहता है। नवविवाहिता मायके जाती है, तो भी ध्यान पति की ओर ही रहता है आदि-आदि। उसकी हर गतिविधि की ओर उसका ध्यान जाता रहता है। बस ऐसी प्रीति करो परमेश्वर से गुरुदेव जी हम सबसे कहते हैं कि कभी परमेश्वर की कृपाओं को याद करके उसका धन्यवाद करो, जो उसने तुम पर की है। परमात्मा की सबसे बड़ी कृपा तुम्हें मानव रूप दिया। 84 लाख योनियां हैं।
संसार के भोगों का आनंद लेने के लिए तुम्हें बहुत औजार दिये। सुंदर मुख पर दो नेत्र दिये, संसार के सौंदर्य को देखने के लिए प्रज्ञा पुरुष इन नेत्रें से ही प्रभु दर्शन करते हैं। दो कान दिये, संसार के स्वरों को सुनने के लिये, मीठे भी कड़वे भी, हर तरह के बोल, प्रभु वाणी भी दी, नाक दिया, मुंह दिया, केश दिये, बुद्धि दी, टांगें दी, पांव दिये, उदर दिया, खाने के लिए दांत दिये, बोलने की जिह्वा दी, खाना पचाने के लिए पेट में अग्नि, प्राणों को जीवन के लिए हाथ दिये, बाजुओं के आगे का भाग कुछ अलग सा, हथेली, उंगलियां, फिर जगह-जगह जोड़ लगाये, नहीं तो तुम मुड़ते कैसे, झुकते कैसे, तुम्हें हंसने, मुस्कराने, सोचने की शक्ति दी। मस्तिष्क न हो तो क्या हालत हो, ऐसी व्यवस्था कि दिन बनाया, रात बनाई, दिन में काम करो, रात को आराम करो।
नींद बनाई, सब कुछ शान्त केवल मन को छोड़कर। मन तो मनमौजी है, इसे अपने आधीन रखो तो यह मित्र है, इसे खुला छोड़ दो, तो शत्रु बन जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं, मनुष्य का मन उसका शत्रु भी है और मित्र भी, बन्धन का कारण भी है, मुक्ति का साधन भी है। थोड़े शब्दो में भगवान ने मनुष्य को पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार दिये, इनका प्रयोग करना भी तुम्हारे हाथ में है ओर इन सबका राजा, स्वामी-संचालक भी तुम्हारे अंदर बैठा दिया आत्मा के रूप में, जो परमात्मा का अंश ही तो आत्मा है। उसी के कारण सब आदेश चलते हैं। सब कार्य होते हैं, वह चला जाये, तो जीव एक मुर्दा, फिर उसे कोई छूना भी नहीं चाहता, आत्मा है तो जीव है। ईश्वर का खेल बड़ा निराला है। अतः उसकी सत्ता, उसकी शक्ति, उसके सत्य को जानो-पहचानों और मानो।
जल, पृथ्वी, वायु, आकाश और अग्नि, सूर्य-चमकता गोला, सारे विश्व को प्रकाशित करता, अनेक सूर्य, हजारों सूर्य, कितने ही ब्रह्माण्डों की रचना, सबका रखरखाव, संतुलन, हजारों नदियों की सुमधुर गति, समुद्र, चन्द्रमा, पर्वतों की श्रृंखलाएं, पर्वतों पर हिम का जमना, चमकना, पिघलना, घास पर बूंदे, समुद्र से जल का भाप बनना, बादल बन बरसना धरती की प्यास बुझाना, धरती में अनाज, अनेक वनस्पतियों का अंकुरित होना। बड़ा होना, पकना और पशुओं को भोजन देना। वायु कितना बड़ा वरदान, थोड़ी देर के लिये रुक जाये, तो सारे प्राणी धराशायी, कितनी तरह के जीव-जन्तु सबके लिये भोजन की व्यवस्था करना। आकाश से स्पेस मिला, खाली स्थान मिल गया, कितनी तरह के पेड़-पौधे, फूल, हजारों जातियों के फूल, सुनसान पर्वतों में फूलों की वादियां, मीलों मील तक फूल ही फूल, सुगन्ध ही सुगन्ध।
कहां इतनी बुद्धि है इंसान में, जो उसकी रचनाओं का, कृत्यों का वर्णन कर सके, वह तो अवर्णनीय है। भगवान सबके अर्न्तयामी हैं, सब प्राणियों के हृदय में विराजमान हैं, किन्तु परदे में छिपे हुए हैं, जानने में नहीं आते, किन्तु जिसने अपने चित्त को, बुद्धि को प्रभु के चरणों से जोड़ लिया, वे सूक्ष्म-बुद्धि उस परम को जान लेते हैं। भगवान श्रीकृष्ण गीता का उपदेश करते हुए अर्जुन से कहते हैं
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेश्य |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ||
अर्थात् तू मुझमे अपने मन को लगा, अपनी बुद्धि को लगा, इसके उपरान्त तू मुझमें निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। इसलिये मनुष्य के चाहिए वह ईश्वर की शक्ति और सत्ता को पहचाने। संसार के सब कार्य करे, कर्त्तव्य करे, उपयोग करे, आनंद ले, किन्तु मनुष्य को चाहिए कि वह इसे ही जीवन का उद्देश्य न मान ले। अपनी इन्द्रियों का प्रयोग प्रभु मिलन के लिए भी करे। ईश्वर का विधान देखिये, जो नश्वर है, अस्थाई है, अनित्य है अर्थात् शरीर, वह दृश्य है और जो अनश्वर, स्थायी, निरन्तर और नित्य है अर्थात् आत्मा, वह अदृश्य है, दिखाई नहीं देता, किन्तु शरीर का स्वामी है, संचालक है। यही तो माया है उसकी, यही सत्य है और यही प्रभु की श्रेष्ठता है।
इन्द्रियों क प्रयोग मनुष्य कैसे करे? सांसारिक दृष्टि से ऊपर बताया गया है। आध्यात्मिक श्रेष्ठजन कहते हैं, नेत्रों का प्रयोग प्रभु दर्शन के लिए करें, कानों का प्रयोग प्रभु के पावन नाम श्रवण के लिये करें, पावों का प्रयोग धार्मिक स्थलों व तीर्थ दर्शनों के लिये करें, जिह्वा का प्रयोग प्रभु के पावन नाम का सिमरन करने के लिये करें, हाथों का प्रयोग प्रभु सेवा के लिए करें। यही पुण्य कमाने और पापों के नाश का मार्ग है। अतः सद्गुरु की सीख को सीख लो, उतार लो मन के आंचल में, सत्य की शक्ति और सत्ता को पहचानो। उसे जानो और मानो, उसी में तुम्हारा कल्याण है।