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कोरोना से लड़ाई में समुचित आहार, भरपूर नींद जरूरी

कोरोना से लड़ाई में समुचित आहार, भरपूर नींद जरूरी

कोरोना से लड़ाई में समुचित आहार, भरपूर नींद जरूरी

जिसका आहार, विहार, विचार एवं व्यवहार संतुलित तथा संयमित है, जिसके कार्यों में दिव्यता, मन में सदा पवित्रता एवं शुभ के प्रति अभीप्सा है, जिसका शयन एवं जागरण नियमित है, वही सच्चा योगी है।

जिसका आहार, विहार, विचार एवं व्यवहार संतुलित तथा संयमित है, जिसके कार्यों में दिव्यता, मन में सदा पवित्रता एवं शुभ के प्रति अभीप्सा है, जिसका शयन एवं जागरण नियमित है, वही सच्चा योगी है। आहार से व्यक्ति के शरीर का निर्माण होता है। आहार का शरीर पर ही नहीं, मन पर भी पूरा प्रभाव पड़ता है।

छान्दोग्योपनिषद्‌ में कहा गया है–

आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति:।।

स्मृतिलब्धे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:।।

आहार के विषय में महर्षि चरक का एक दृष्टांत बहुत ही सुंदर है। एक बार महर्षि चरक ने अपने शिष्यों से पूछा, ‘‘कोऽरुक्‌, कोऽरुक्‌, कोऽरुक्‌?’’ कौन रोगी नहीं, अर्थात् स्वस्थ कौन है? महर्षि के प्रबुद्ध शिष्य वाग्भट ने उत्तर दिया, ‘‘हितभुक्‌, मितभुक्‌, ऋतुभुक्‌।’’ हितकारी, उचित मात्रा एवं ऋतु के अनुकूल भोजन करने वाला स्वस्थ है। अपनी प्रकृति (वात, पित्त, कफ) को जानकर उसके अनुसार भोजन लें।

यदि वात प्रकृति है, शरीर में वायु विकार होते हैं तो चावल आदि वायुकारक एवं खट्‌टे भोजन का त्याग कर देना चाहिए। छोटी पिप्पली, सोंठ, अदरक आदि का प्रयोग करते रहना चाहिए। पित्त प्रकृति वाले को गर्म, तले हुए, पदार्थ नहीं लेने चाहिए। घीया, खीरा, ककड़ी आदि कच्चा भोजन लाभदायक होता है। कफ प्रकृतिवाले को ठंडी चीजें चावल, दही, छाछ आदि का सेवन अति मात्रा में नहीं करना चाहिए। दूध में छोटी पिप्पली, हल्दी, आदि डालकर सेवन करना चाहिए। उचित मात्रा में भोजन लेना चाहिए। आमाशय का आधा भाग अन्न के लिए, चतुर्थांश पेय पदार्थों के लिए रखते हुए शेष भाग वायु के लिए छोड़ना उचित है।

ऋतु के अनुसार पदार्थों का मेल करके सेवन करने से रोग पास में नहीं आते

ऋतु के अनुसार पदार्थों का मेल करके सेवन करने से रोग पास में नहीं आते। भोजन का समय निश्चित होना चाहिए। असमय पर किया हुआ भोजन अपचन करके रोग उत्पन्न करता है। प्रात:काल आठ से नौ के बीच हल्का पेय, फलादि लेना अच्छा है। प्रात:काल में अन्न का प्रयोग जितना कम हो, शरीर के लिए उतना उत्तम है। पचास वर्ष से अधिक वायु के व्यक्ति प्रातराश न लें तो अच्छा है मध्याह्न में ग्यारह से बारह बजे तक भोजन लेना उत्तम है। बारह से एक बजे का समय मध्यम, उसके बाद उत्तरोत्तर निकृष्ट समय होता है। भोजन करते समय वार्तालाप करने से भोजन अच्छी तरह से चबाया नहीं जाता तथा अधिक भी खा लिया जाता है, इसलिए भोजन के समय मौन रहकर भगवान्‌ के नाम का स्मरण करते हुए चबा-चबाकर भोजन करना चाहिए। एक ग्रास को बत्तीस बार या कम से कम बीस बार तो चबाना ही चाहिए।

चबाकर भोजन करने से हिंसा भाव की भी निवृत्ति होती है; क्योंकि हम सब जानते हैं कि जब क्रोध आता है, तब व्यक्ति दांत पीसने लगता है, अर्थात्‌ क्रोध का उद्‌गम-स्थान दांत है। यदि हम हिंसाभाव को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें चबाने पर विशेष ध्यान देना चाहिए। आप स्वयं इसका अनुभव करके देखेंगे तो इसके परिणाम से परिचित होंगे।

भोजन के प्रारंभ मं ओ३म्‌ का स्मरण या गायत्री आदि के साथ तीन आचमन करने चाहिए

भोजन के प्रारंभ मं ओ३म्‌ का स्मरण या गायत्री आदि के साथ तीन आचमन करने चाहिए। भोजन के बीच में पानी नहीं पीना चाहिए। यदि भोजन रुक्ष हो तो थोड़ी मात्रा में पी सकते है । भोजन के बाद दो-तीन घूंट से ज्यादा पानी नहीं पिएं । यदि छाछ हो तो जरूर पीना चाहिए। संस्कृत में एक श्लोक आता है जिसका तात्पर्य है–‘‘जो प्रात:काल उठकर जलपान करता है, रात्रि को भोजनोपरान्त दुग्धपान तथा मध्याह्न में भोजन के बाद छाछ पीता है उसे वैद्य की आवश्यकता नहीं होती।’’ अर्थात्‌ वह व्यक्ति नीरोग रहता है।

इसके साथ-साथ हमारा भोजन पूर्णरूप से हमारे लिए उपयुक्त हो। भोजन में खनिज, लवण एवं विटामिन बी भरपूर होने चाहिए।

निद्रा अपने-आपमें पूर्ण सुखद अनुभूति है। यदि व्यक्ति को नींद न आये तो पागल भी हो सकता है। निद्रा देखने में तो कुछ नहीं लगती, परन्तु जिनको नींद नहीं आती, वे ही जानते हैं, इसका क्या महत्व है। एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए 6 घण्टे की नींद पर्याप्त है। बालक एवं वृद्ध के लिए आठ घण्टे सोना उचित है। सायंकाल शीघ्र सोना एवं प्रात:काल शीघ्र उठना व्यक्ति के जीवन को उन्नत बनाता है। जल्दी सोना एवं जल्दी उठना व्यक्ति को स्वस्थ एवं महान्‌ बनाता है।

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