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जानिये अपने नाभि केन्द्र की शक्तियां

जानिये अपने नाभि केन्द्र की शक्तियां

जानिये अपने नाभि केन्द्र की शक्तियां

शरीर को रोगमुक्त एवं स्वास्थ्य को उन्नत बनाए रखने के लिए भी व्यक्ति के शरीर में नाभि चक्र का सही स्थिति में होना आवश्यक है।

शरीर के आंतरिक संतुलन, अंग-प्रत्यंगों में सामंजस्य एवं नाड़ियों के समुचित कार्य-संचालन में नाभि मण्डल की महत्वपूर्ण भूमिका है। नाभि के माध्यम से नस-नाड़ियों में प्रवाहित होती जीवनी शक्ति शरीर को स्वस्थ एवं कार्यशील बनाती है।
इसीलिए विशेषज्ञ नाभि चक्र को विकृत होने से बचाने में विशेष ध्यान देते हैं। इसे मणिपूरक व सूर्यचक्र भी कहा जाता है। यह प्राण तत्व का उद्गम ड्डोत है। यह ब्रह्म चेता का केन्द्रक भी है। अवचेतन मन के संस्कार एवं चेतना के दस दल कमल पंखुड़ियों से युक्त यह नाभि चक्र। जिन साधक की निरंतर स्वांश-प्रस्वांस साधना सतत लयबद्ध चलती रहती है, उसकी कुण्डलिनी शक्ति मणिपूरक चक्र तक पहुंच पाती है। मणिपूरक चक्र अर्थात् दिव्य तेज से युक्त एक ऐसी मणि वाला क्षेत्र जो शरीर के सभी अंगों-उपांगों के लिए जीवनी शक्ति की आपूर्ति के रूप में कार्य करता है। मणिपूरक चक्र पर सभी अंगों और उपांगों तक जीवनी शक्ति पूर्व प्राण वायु के यथोचित पूर्ति का भार है। साथ ही गर्भाशय स्थित शरीर को पोषण देकर रचना करना, पोषण, पूर्ति तथा उस शिशु शरीर की सारी व्यवस्था का भार से लेकर जीवन क्रम के अंत क्षण तक का दायित्व इस चक्र पर रहता है। जिसकी पूर्ति शिशु के काल में ब्रह्मनाल (ब्रह्म नाड़ी) के माध्यम से होती रहती है।
मणिपूरक चक्र ही शरीर का केन्द्र बिन्दु है। शरीर में नाड़ियों का जाल यहीं से बिछा होता है। समस्त अंगों-उपांगों की आपूर्ति व्यवस्था भी यहीं से होती है। यदि नाभिचक्र सुप्त अवस्था में है, नाभि चक्र को साधा न गया तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, भय, अविवेक, अहंकार यहीं से प्रकट होते हैं। इसके जागृत होने पर व्यक्ति में आत्म निर्भरता, अभय, सृजन की शक्ति जगती है।
मूलमंत्र ‘‘रं’’ बीज मंत्र है: यह नाभि जागृत करने का मूल है। इस चक्र को जागृत करने के लिए बहुत ज्यादा साधना की जरूरत होती है। इस चक्र के जागरण से व्यक्ति शक्ति सम्पन्न हो जाता है। जो प्रकृति के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है। पूर्व जन्म का ज्ञान, भाषा का ज्ञान, इसी से मिलता है। अग्नि तत्व की सिद्धि भी यहीं से होती है।
शरीर को रोगमुक्त एवं स्वास्थ्य को उन्नत बनाए रखने के लिए भी व्यक्ति के शरीर में नाभि चक्र का सही स्थिति में होना आवश्यक है। आधुनिक चिकित्सक नाभि की विकृति से उत्पन्न दोषों के उपचार से व्यक्ति अनजान है। असकी विकृति पर शरीर के अनेक रोगों पर औषधि, उपचार पद्धतियों कारगर नहीं हो पातीं। जबकि नाभि चक्र व्यवस्थित करने पर रोग शीघ्रता से दूर होते हैं।
नाभि चक्र क्या है?
आधुनिक भागदौड़ वाली जीवन शैली तनाव-दबाव, प्रतिस्पर्धापूर्ण वातावरण खान-पान में अस्त-व्यस्तता से व्यक्ति का नाभि चक्र क्षुब्ध बन कर अव्यवस्थित हो जाता है। खेलने के दौरान, उछलने-कूदने, असावधानी से दाएं-बाएं झुकने, दोनों हाथों से या एक हाथ से अचानक भारी बोझ उठाने, तेजी से सीढ़ियां चढ़ने-उतरने, सड़क के चलते हुए गड्ढे में अचानक पैर चले जाने आदि कारणों से झटका लगने व अन्य लापरवाही से नाभि विकारग्रस्त हो जाती है।
यौगिक शरीर विज्ञान के अनुसार नाभि के नीचे एक गोलाकार कन्द है। इसी स्थान से सम्पूर्ण शरीर में फैली हुई 72 हजार नाड़ियों की उत्पत्ति हुई है इनमें प्राणवाही 72 नाड़ियां मुख्य हैं। इनमें भी दस नाड़ियां प्रमुख हैं। नस-नाड़ियों में प्रवाहित होती जीवनी शक्ति शरीर को स्वस्थ एवं कार्यक्षम बनाए रखती है। इससे व्यक्ति आशा, उत्साह, उमंग से जीते हुए जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करता है। नाड़ी का शाब्दिक अर्थ है बहाव या धारा। नाड़ियां सूक्ष्म शरीर के विभिन्न चक्रों और अतीन्द्रिय केंद्रों को एक दूसरे से जोड़ने वाले पथ हैं। जिनसे होकर प्राण-ऊर्जा-प्रवाह शरीर में सब जगह पहुंचता है।
नाभि के अपने स्थान से टलने पर प्रमुखतः उदर सम्बन्धी अव्यवस्थाएं जैसे पेट में दर्द होना, गड़गड़ाहट की आवाजें, कब्ज रहना, गैस बनना, अतिसार आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इसके अलावा आंत उतरना, हृदय रोग, मधुमेह, बवासी, सिरदर्द, माइग्रेन, स्त्रियों के मासिक धर्म सम्बन्धी विकार में नाभि टलना भी एक प्रमुख कारण है। अतः इन रोगों की कोई चिकित्सा या शल्यक्रिया कराने से पहले नाभि परीक्षण योग प्रशिक्षक से कराना अधिक हितकर होता है। अवश्य करा लेना चाहिए।
नाभि परीक्षणः
इसे प्रातः शौचादि से निवृत्त होकर खाली भूखे पेट करना चाहिए। नाभि परीक्षक कहते हैं सर्वप्रथम शांत वातावरण में समतल जमीन पर कंबल बिछाकर पीठ के बल लेट जाएं। सिर से पैर तक शरीर सीधा रहे। हाथ शरीर के पास जमीन पर, हथेलियां आकाश की ओर खुली अवस्था में रखें। आंखें एवं मुंह बंद करे। शरीर को शिथिल एवं मन को शांत करें। तत्पश्चात् दस बार लम्बी गहरी श्वांस लें। तत्पश्चात् उंगलियों के नीचे नाभि की घुंडी में हृदय की धड़कन जैसा स्पंदन अनुभव होगा। यही नाभि चक्र होता है। नाभि ऊपर की ओर हो तो कब्ज, पेट में गैस, हृदय रोग आदि हो जाते है। नाभि नीचे की ओर टलने पर अपचन, पेट दर्द के साथ गड़गड़ाहट होने लगती है। यदि नाभि बगल में हो तो पेट में तीव्र पीड़ा आरम्भ हो जाती है। अतः नाभि यथास्थान कर देने से तुरंत लाभ मिलता है।
नाभि लम्बे समय तक टली रहे तो उदर विकार के अलावा व्यक्ति के दांतों, नेत्रें व बालों में समस्या पैदा होती है। यदाकदा दांतों में पीड़ा होने लगती है। नेत्रें की सुंदरता व ज्योति क्षीण होने लगती है। बाल असमय सफेद होने लगते हैं।
शारीरिक रोग ही नहीं, आलस्य, थकान, चिड़चिड़ाहट, काम में मन न लगना, दुश्चिंता, निराशा, अकारण भय जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियां नाभि चक्र की अव्यवस्था की उपज है। इसकी वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में योग के आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि अपनाने का विधान है। नाभि में किसी प्रकार की विकृति होने की स्थिति में उसे ठीक करने के लिए कुशल योग शिक्षक की सहायता ली जानी चाहिए।