जुडे़ चेतना के आकर्षक रहस्यों से, करें भूत-भविष्य दर्शन
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का भी अपना मन-मस्तिष्क एक चित्त है। उस तक पहुंचने के लिए व्यक्ति को अपनी जड़ता- संकीर्णता, द्वेष-दुर्भावना, लोभ लालच से मुक्त होना पड़ता है। साधक इस प्रकार अपने निज स्वरूप में स्थित होने लगता है और उसका ब्रह्माण्ड के चित्त से सहज सम्पर्क सधने लगता है।
दशकों पूर्व इंग्लैण्ड के एक छोटे कस्बे में रहने वाले कर्नल डेविड स्मिथ ने एक दिन स्वप्न में एक घटनाक्रम देखा, जैसे वे प्रत्यक्ष घटित होते देख रहे हों। घोर आश्चर्य कि वही सब सौ वर्ष पूर्व घटित हो चुका था। जब उन्होंने उस दृश्य पर खोज किया कि क्या कभी ऐसी कोई घटना इतिहास में घटित हुई थी, तो पाया कि जैसा उन्होंने स्वप्न में देखा, ठीक वैसा ही सदी पूर्व घटित हो चुका था। भूतकाल के दर्शन के साथ साथ ऐसे ही विशेषज्ञों ने अनेक उदाहरण भविष्य की झांकी दर्शाने वाली घटनाओं से सम्बंधित असंख्य उदाहरण जुटाये हैं, जो कालान्तर में ज्यों के त्यों सत्य सिद्ध हुए हैं। वैश्विक स्तर के अनेक भविष्य वक्ताओं की चर्चायें अक्सर आये दिन सुनने को मिलती ही रहती हैं।
ऐसी घटनायें संदेश देती हैं कि हम-आपके मन व चित्त की तरह ही हमारे ब्रह्माण्ड का भी एक मन है, जिसे समष्टि-मन कहते हैं, जो अपने आप में समग्र के रूप में एक इकाई है। भूतकाल के घटनाक्रम अथवा भविष्य से सम्बंधित सम्भावनायें सभी कुछ उसमें अमिट रूप में संचित होते रहते हैं। हमारे साधारण से साधारण विचार भी उसी ब्रह्माण्डीय मन व मस्तिष्क में अमर बनकर संचित हो जाते हैं। साथ ही समय क्रम और देशकाल के ढाँचों से परे वे किसी समचित्त मनःसंस्थान में स्पष्ट साकार अपनी झांकी प्रस्तुत कर जाते हैं।
आत्मविज्ञानी एवं स्वप्न विज्ञानी मानते हैं कि कोई भी मनुष्य अपनी गहरी संवेदना के धरातल पर समष्टि मनःचेतना तक पहुंचकर देश व काल से परे उसे देखने लगता है। क्योंकि समय और स्थान मानव मस्तिष्क की कल्पना मात्र है। ब्रह्माण्डीय स्तर पर उनकी कोई निरपेक्ष स्थिति नहीं होती। घटनाओं की सापेक्षता में ही दिक् और समय का महत्व उभरता है। यही बात मांडूक्य-कारिका कहती है-
अर्थात् यह विश्व वास्तव में चित्त की अनुभूति, सम्वेदना और घटनाओं की सापेक्षता मात्र है। दृश्य जगत में इसके अतिरिक्त अन्य कोई विशेषता नहीं है। आत्मविज्ञान के विश्लेषकों का मानना है कि ‘‘पदार्थ की गतिशीलता भविष्य की ओर रहती है, जबकि चेतना की गति भूत, भविष्य, वर्तमान से परे अनन्त आयामी होती है। अतः निश्चित फ्रिक्वेंसी के साथ समष्टि चेतना के मस्तिष्क तक पहुंचकर उन पदार्थपरक घटनाक्रम को हम उसके सूक्ष्म रूपांतरण के साथ स्थूल संसार के भूत व भविष्य को उसी रूप में देख सकते हैं, जैसे वह वर्तमान में घटित हो रहा हो।’’ भारतीय ऋषियों ने अनन्त काल पूर्व ही चेतनाविज्ञान की गहराई में उतरकर यह पद्धति विकसित कर ली थी।
चेतना विशेषज्ञों का मानना है कि ‘‘शब्द से लेकर अणु-परमाणु तक कभी नष्ट नहीं होते, अपितु वे सूक्ष्म में रूपांतरित मात्र हो जाते हैं। यदि ऐसी यांत्रिकी विकसित की जा सके, जो वर्तमान के पीछे छिपे परमाणुओं को पकड़ सके, तो अनन्तकाल पूर्व घटित उन दृश्यों को पुनः घटित होते वर्तमान में भी देखा जा सकता है।’’ चेतना अनुसंधान कहता है कि स्थूल आंखों के पीछे सूक्ष्म आंख काम करती है, उसे सहज संवेदनशीलता एवं साधनापूर्वक जगा लेने मात्र से भूत-भविष्य सब कुछ सहज देख सकते हैं, जैसे वह प्रत्यक्ष घटित हो रहा हो।’’ पूज्य श्री सुधांशु जी महाराज कहते हैं कि ‘‘अनेक भारतीय चेतना विज्ञान के सच्चे साधक, संत आज भी इस विशेष शक्ति से ओत-प्रोत हैं और उन्हें भूत-भविष्य सबकुछ प्रत्यक्ष दिखता है, पर वे ब्रह्माण्डीय अनुशासन के प्रति समर्पित होने के कारण प्रकट नहीं करते।’’
यही नहीं कई बार तो साधारण व्यक्ति केअवचेतन मन का भी तार कुछ पलों के लिए समष्टि के प्रवाह से अनायास भी जुड़ जाता है। परिणामतः उसे सम्पूर्ण भूत की घटनायें वर्तमान में प्रत्यक्ष दिखने लगती हैं। सामान्य लोगों में ऐसा किसी अनजान क्षण में अकस्मात ही घटित भूत या भविष्य की प्रत्यक्ष झांकी को लोग चमत्कार मान बैठते हैं। पर है यह एक अनुशासित विज्ञान ही, जो गहरी भाव संवेदनाओं में उतरने पर स्वतः ही जागृत हो उठता है।
वास्तव में समष्टि से अपने को जोड़ देने पर चित्त की अनुभूति-क्षमता का क्षेत्र अनन्त आयामों में विस्तार पा लेता है और उस समय भूत-भविष्य की किसी भी घटना को प्रत्यक्ष जानना व देखना सहज सम्भव होता है। पर सचेत रूप से अपने मन को समष्टि चित्त व ब्रह्माण्ड के मन में जोड़ने के लिए गुरु, संतों, योगियों व आत्मक्षेत्र के विशेषज्ञों के सान्निध्य में साधना करने की जरूरत होती है। जो जिस स्तर तक उस समष्टि चित्त से तादात्म्य स्थापित कर लेता है, उसके भूत-भविष्य को देखने की क्षमता उतनी ही सशक्त होती जाती है।
महर्षि पतंजलि का ‘‘क्षण तत्क्रमयोः संयमाद् विवेकजं ज्ञानम्।’’ यही तो है। वे कहते है कि समय के अत्यन्त छोटे क्षण के क्रम में चित्त-संयम करने से संसार की सही स्थिति का निरीक्षण सहज किया जा सकता है। साधक वर्तमान के साथ-साथ भूत, भविष्य के आयामों में भी अपनी पैठ बना लेता है।
पूज्य श्री सुधांशु जी महाराज कहते हैं कि ‘‘वास्तव में इसमें चमत्कार जैसा कुछ भी नहीं है। अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का भी अपना मन-मस्तिष्क व चित्त होता है। उस तक पहुंचने के लिए व्यक्ति को अपनी जड़ता-संकीर्णता, द्वेष-दुर्भावना, लोभ लालच से मुक्त होना पड़ता है। साधक अपनी सम्पूर्ण आत्मगत चेतना को सुनियोजित करते ही निज स्वरूप में स्थित होने लगता है और इस प्रकार उसका ब्रह्माण्ड के मन-मस्तिष्क-चित्त से सहज सम्पर्क सधने लगता है।’’ आइये! हम भी चेतनाविज्ञान के रहस्यों से जुड़ने के लिए अपने सचेतन मस्तिष्क को सेवा-सहकारिता, साधना, सद्गुणों वाली जीवनशैली के सहारे संवेदित करें, ऊंचा उठायें, जिससे हमारा भी समष्टि चेतना के चित्त से सहज सम्पर्क सधने लगे और यह रहस्य हमारे लिए भी रहस्य न रह सकें।