fbpx

मातृत्व की गरिमा

मातृत्व की गरिमा

मातृत्व की गरिमा

प्यारा शब्द है माँ, जिसे पुकारते ही याद आती है मातृत्व की वह गोद जिस में विश्राम, आराम, शांति-प्रेम-करुणा सभी मिलते है।

मातृत्व की गरिमा

प्यारा शब्द है माँ, जिसे पुकारते ही याद आती है वह गोद जिस में विश्राम, आराम, शांति-प्रेम-करुणा सभी मिलते है। माँ जीवित हो या अपनी जीवन यात्र पूरी करके परलोक सिधार चुकी हो, माँ का भोला चेहरा, उनके साथ बिताये बचपन के दिन जीवन जीने की प्रेरणा शक्ति देते हैं।

ऐसी होती है माँ

याद आता है कि बचपन में जब कभी हम गिरे, तो माँ अपना सारा काम छोड़ कर दौड़ती और अपनी बाहों में थाम लेती। बदले में माँ न कभी हमारे मुंह से धन्यवाद शब्द सुनना चाहती और न ही कभी वह अहसान जताती कि मैंने तुम्हारे लिए बहुत किया। एक सांसारिक माँ में हमें विश्वमाता की ही अनुभूति तो होती है। विश्व माँ तो पूरे विश्व की है।

ऐसे दिखती है माँ की महिमा

वह ब्रह्मा की कलम माँ सरस्वती, विष्णु की समृद्धि माँ लक्ष्मी, शिव की शक्ति माँ पार्वती रूप में विश्व भर में फैले अपने बच्चों को सम्हालती है। पर घर-परिवार में माताओं ने ही तो बचपन से संस्कार देकर महानता के आदर्श स्थापित किए हैं। माँ सुमित्र, मदालसा, माँ सुनीति आदि इसी नारी चेतना का आदर्श रूप हैं, जो धन्य मानी गयी।

 प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी, माता विद्यते यस्य स मातृमान।।

अर्थात् माँ धन्य है क्योंकि वह गर्भ से लेकर जब तक बालक की विद्या पूरी न हो, तब तक अपनी सुशीलता-शालीनता व धर्मशीलता का आशीर्वाद देती है। सदियों से ऋषि प्रेरित परम्पराओं को वह आज भी छोटे-छोटे प्रयोगों से जीवित रखती आई है, इसीलिए भारत अनन्तकाल से मातृ सत्तात्मक समाज के लिए जाना जाता रहा है।

सच कहें तो नारी भले आज आधुनिक स्थितियों में घर के छोटे से पिजड़े से वह बाहर की दुनियां में पैर पसारने में सफल हुई है, पर मानसिक स्तर पर वह आज भी कैद है। जिससे उसकी बौद्धिक क्षमता, भावनात्मक सम्वेदनशीलता, जीवन की आंतरिक सृजनशीलता तक चौपट हो रही है। वह खुली हवा, धूप, हाथ-पांव हिलाने की स्थिति में तो दिखती है, पर वह अपनी गौरव-गरिमा खोने से नहीं बच पा रही। आज के आधुनिक समाज ने उसे फैशन-प्रदर्शन की पुतली बना दी है।

मातृत्व की तड़प फूटनी चाहिए

इस प्रकार वह कभी लोहे की बेड़ियों में जकड़ी थी, तो आज उसे इसी समाज ने सोने की बेड़ियों में जकड़ रखा है। युग बदला पर सीमित दायरे से वह निकल ही नहीं पा रही।  सोने-चांदी से उसे लादना, उसे शौक-श्रृंगार से जोड़ना, अपने उत्पादों के विज्ञापन में उसका उपयोग करना आदि उसे सीमित करना ही तो है। इससे कोई ठीक-ठीक विकास कैसे कर सकता है, जिस समाज की नारी बंधी है, उस परिवार और समाज की उन्नति कैसे सम्भव है? अतः हमें समाज को सम्पूर्ण उन्नत बनाना है तो भारतीय आर्ष साहित्य, वेद आदि से लेकर अनेक लोक साहित्य में भी बताई गई नारी शक्ति की मातृभाव वाली गरिमा व महिमा की ओर मुड़ना आवश्यक है। वास्तव में हर नारी के अंतःकरण से यह मातृत्व की तड़प फूटनी चाहिए, तभी कुछ सम्भव है। ●

डॉ. अर्चिका दीदी