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ध्यानमूलं गुरुकृपा

ध्यानमूलं गुरुकृपा

ध्यानमूलं गुरुकृपा

ध्यान सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक साधना है। गुरुदेव कहा करते हैं किसी शीशे की सहायता से जब सूर्य की किरणों को एक बिन्दु पर केन्द्रित कर दिया जाता है, तब जिस वस्तु पर किरणों को केन्द्रित किया जाता है, वह जलने लगती हैं। इसीलिये जीवन के सभी पक्षों में समन्वय पैदा करना बहुत आवश्यक है।

Oho mkमनुष्य को जीवन में सफलता के लिये शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक पक्षों के साथ सामंजस्य बिठाने की निरन्तर आवश्यकता होती है। इस सामंजस्य को प्राप्त करने का एक सरल उपाय ध्यान है। ध्यान सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक साधना है। गुरुदेव कहा करते हैं किसी शीशे की सहायता से जब सूर्य की किरणों को एक बिन्दु पर केन्द्रित कर दिया जाता है, तब जिस वस्तु पर किरणों को केन्द्रित किया जाता है, वह जलने लगती हैं। इसीलिये जीवन के सभी पक्षों में समन्वय पैदा करना बहुत आवश्यक है। मनुष्य के अन्दर असीमित शक्ति है, या यूं कहा जाये कि उसके अन्दर असीमित शक्तियों का भण्डार है, किन्तु वह उनका प्रयोग करना नहीं जानता। उन शक्तियों को जानने, पहचानने और उपयोग करने की विधि का ज्ञान सद्गुरु से प्राप्त होता है।
जीवन में सारा खेल मन का है। एक परिवार में घर के मुखिया दादाजी ने बहू से कहा बेटे मैं पूजा करने बैठ रहा हूं, देख लेना बच्चे कहीं शोर न करें। पिता जी घर में बने मन्दिर में चले गये। पूजा शुरू की, ध्यान लगाया, पर बच्चे तो शोर कर ही रहे थे, जिससे उनका मन नहीं लग रहा था फिर आंखें बन्द कीं, पर मन दुकान पर चला गया। तभी दुकान से मन लौट आया, बच्चों का शोर फिर सुनाई दिया, लेकिन उनका रोना अब उन्हें बुरा लगने लगा। इस प्रकार मन नहीं लगा, तो वे मन्दिर से उठकर बाहर आये, क्रोध से लाल पीले, बहू पर हुए कि तुम बच्चों को नहीं सम्भाल सकती, कितना शोर मचा रहे हैं मैं भगवान की पूजा तक नहीं कर सका। बहू हंसकर बोली, पिताजी आपका ध्यान तो दुकान में था, आप तो ग्राहकोें को कपड़ा दिखा रहे थे। पिताजी हैरान, इसको कैसे पता, खैर वह चुप कर गये।
वास्तव में ऐसा हम सब के साथ होता है। सच मन बहुत चंचल है। विचारों का उसमें प्रवाह निरन्तर चलता रहता है। पर ध्यानाभ्यास के द्वारा मन को समस्त इन्द्रिय विषयों से हटाकर उसे समेट कर एकाग्र कर लिया जाता है।
मन की चंचलता पर श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े ही सुन्दर उपदेश दिये हैं। भगवान कहते हैं भगवान कहते हैं
प्रशान्तमनसं ह्येन योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।।
(6/27)
अर्थात् जिस योगी का मन स्थिर है, वह निश्चय ही दिव्य सुख की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करता है। वह रजोगुण से परे हो जाता है, वह परमात्मा के साथ अपनी गुणात्मक एकता को समझता है और इस प्रकार अपने समस्त विगत कर्मों के फल से निवृत हो जाता है।
मन ही योग पद्धति का केन्द्रबिन्दु है। इसे संसार के आकर्षणों से हटाने के लिये इन्द्रियों पर नियंत्रण करने का अभ्यास करना चाहिए। मनुष्य को मन और इन्द्रियां बांधे रखती हैं। जबकि मन को जीतना ही ध्यान का उद्देश्य है। भगवान कहते हैं
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।
(6/5)
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।
(6/6)
अर्थात् मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे न गिरने दे। यही मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी। जिसने मन को जीत लिया, उसके लिए मन श्रेष्ठ मित्र है, जो ऐसा नहीं कर पाता उसके लिये मन सबसे बड़ा शत्रु है।
अब यहां ध्यान देने वाली बात है कि मन जिन का स्वामी है, वे उसके दास हैं, उनके लिए मन उनका सबसे बड़ा शत्रु है।
अर्जुन भगवान की सब बातें सुनकर लाचार सा कहता है भगवान! आपने मन और योग के बारे में बहुत कुछ कहा है, किन्तु यह सब मेरे लिये अव्यवहारिक लगता है। क्योंकि मन चंचल, अस्थिर, उच्छृंखल, हठीला और अत्यन्त बलवान है मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी कठिन लगता है। वास्तव में मन पर अंकुश लगाने का काम बुद्धि करती है, जब वह उसे आदेश देती है, तब व्यक्ति अपनी आन्तरिक शक्ति को एकाग्रचित होकर दिशा-निर्देश देता है जिससे वह परमप्रभु के चरणों के साथ जुड़ जाता है। अभ्यास से मन शक्ति पुंज बन जाता है और अजेय बनकर चमत्कार करता है।
ध्यान एक प्रकार से आध्यात्मिक चिन्तन की उड़ान है, पर ध्यान के प्रारम्भिक चरणों में मन भटकता है, किन्तु उससे निराश न हों। मन को नियंत्रित करने की अपनी क्ष्मता में अटल विश्वास रखने से सफलता अवश्य मिलती है। इसीलिए आत्मज्ञानी स्वयं को बार-बार आश्वासन देकर दृढ़ता पूर्वक कहते हैं कि निस्सन्देह मन को वश में किया जा सकता है। नियंत्रित मन ही ब्रह्म जगत तथा आध्यात्म दोनों क्षेत्रें में सफलता की कुंजी है। साधक अपने मन को चारों ओर से समेट कर स्वयं को अपने आराध्य के चरणों में समर्पित करते हुए जब ध्यान की सफलता की सीढ़ियां चढ़ता है, तब उसका मन शान्त होने लगता है और मौन वाली स्थिति भी आ जाती है। मौन साधना चित्त वृत्तियों को बिखरने से बचाती है। मौन साधना ऊर्जा संचयन का उत्तम साधन है। मौन साधना से चैतन्यता, स्फूर्ति और जीवनीशक्ति प्राप्त होती है, जो व्यक्ति की कार्यक्षमता, सूक्ष्मदर्शिता और प्रतिभा को कई गुणा बढ़ा देती है। साधक सद्गुरु के मार्गदर्शन में ऐसी स्थिति को शीघ्र और बड़ी सुगमता से प्राप्त कर सकता है।