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अखण्डित मन वाला बनकर समाज को अखण्ड बनायें

अखण्डित मन वाला बनकर समाज को अखण्ड बनायें

अखण्डित मन वाला बनकर समाज को अखण्ड बनायें

समग्रता में जीवन जीते हुए समाज को समग्रता से जीने का मार्ग दिखाने वाले ही योगी, संत, महापुरुष, पथ प्रदर्शक, सच्चे मानव कहे जाते हैं। जो समग्रता में जियेगा, वह मोह-दुःख से भी मुक्त होगा।

अखण्डित मन वाला बनकर समाज को अखण्ड बनायें

 

शांति-आनन्द, प्रसन्नता लाने का प्रयास करें

आज सम्पूर्ण विश्व में व्यक्ति के जीवन में शांति-आनन्द, प्रसन्नता लाने के लिए तेजी से कार्य हो रहा है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक से लेकर आत्मवैज्ञानिक इसमें लगे हैं, जबकि हमारे यहां के संतों, गुरुओं, महापुरुषों ने अनन्तकाल से मन, व्यक्ति के भावों से लेकर आत्मतत्व की गहराई पर कार्य कर रखा है, भारतीय अध्यात्मविज्ञान इसी पर आधारित है।

चेतन, अचेतन और अवचेतन

व्यक्ति का लगातार जीवन में शांति-आनन्द, प्रसन्नता से दूर होते जाने के संदर्भ में मनोविश्लेषक कहते हैं कि ‘‘मन के तीन हिस्से हैं, चेतन, अचेतन और अवचेतन। मन के ये सभी स्तर एक धारा में रहते हैं, तो जीवन व्यवहार में एक स्वरता व व्यक्तित्व में अखण्डता रहती है। लेकिन मन के अलग-अलग खण्ड में बंटे होने के कारण, मन के तीनों धरातलों के बीच में सामन्जस्य न होने के कारण उसका व्यक्तित्व भी अलग-अलग स्वर में बंट जाता है। परिणामतः जीवन भी बंट जाता है।

खण्डित होता मन

जबकि एक योगी के जीवन में सम स्वरता होती है, सदैव उसके मन के तीनों धरातलों पर उसमें एक ही स्वर गूंजता रहता है, उसका मन बिखरता नहीं। वह सदा परमात्मा की याद में होता है, वह अंदर-बाहर से युक्त होता है, जुड़ा होता है परमात्मा से, इसलिए उसके जीवन में एक स्वरता है, एक लय है। योगी का मन अखण्ड है, इसी अखण्डता के कारण उसके अन्दर आनन्द है, शांति है। जबकि सामान्यतः लोगों के अंदर अनेक स्वर गूंजते रहते हैं, वह इसलिए गूंजते हैं, क्योंकि उसका मन खण्डित होता है। आम साधारण लोगों का मन खण्ड-खण्ड में बटा व बिखरा रहता है, मन अनेक खण्डों में बटा होने के कारण उसके अन्दर अव्यवस्था, अशांति बनी रहती है।

लाजिकल माइंड

मानलीजिए हमारा चेतन मन अर्थात लाजिकल माइंड उपवास के लिए प्रेरित करता है, चेतन मन ने उपवास का निर्णय लिया, लेकिन हमारे अवचेतन व अंदर वाले मन ने उसके लिए सहमति नहीं दी। फिर भी चेतन मन के आगे वह दब जायेगा। पर जब हम नींद में जायेंगे, तो वह हमारे सामने नींद व स्वप्न में अनेक प्रकार के भोजन परोसता है और हम स्वप्न में उसे खाते हैं। साइकोलोजिस्ट कहते हैं कि वास्तव में अंदर दबा मन का वह हिस्सा उपवास नहीं, भोजन करना चाहता था, जबकि हमने उसे जबरदस्ती रोक दिया था। इसलिए वह स्वप्न में उसे पूरा कर रहा होता है, क्योंकि अवचेतन मन नींद के बाद कार्य करना प्रारम्भ करता है।

दोहरे मन वाले समाज में रहना

इसी प्रकार कोई ऐसा व्यक्ति जिससे हम मिलना नहीं चाहते और वह अचानक हमें मिल जाता है। तो हमारा अंदर वाला मन उसे स्वीकार नहीं करता, अंदर से असली आवाज आती है कि न जाने यह कहां से सामने आ पड़ा। जबकि चेतन मन उस सेचुएशन को बार-बार सम्भालता है और कहता है वाह भाई भले आप आ गये, हम आपसे मिलना ही चाह रहे थे। यही नहीं लोकव्यवहार से सदा जुड़ा रहने वाला हमारा चेतन मन उस व्यक्ति की आव भगत में लग जायेगा। अर्थात हम अपने चेतन मन द्वारा वर्षों से लिए जा रहे व्यावहारिक प्रशिक्षण के चलते, लोक व्यवस्था बस सामने वाले व्यक्ति के साथ झूठा व्यवहार करने लगते हैं। क्योंकि चेतन मन हमारे समाज की देन है। चेतन मन समाज के लोक व्यवहार से परिचित हो चुका है, इसीलिए उसे इस झूठे व्यवहार में रस आता है।

 

यद्यपि हमारा चेतन मन जन्म से ही इस तरह लोक व्यवहारी नहीं था। एक पैदा होने वाला बच्चा चेतन और अवचेतन दोनों मनों अर्थात अंदर बाहर से एक होता है। धीर-धीरे लोग उसे समाज के अनुसार सही-गलत सिखाना प्रारम्भ करते हैं, इस तरह धीरे-धीरे बच्चे का अवचेतन मन दबता जाता है। एक प्रकार से उसके अंदर भावों व विचारों का कबाड़ा भरता जाता है। उसी कबाडे़ के आधार पर बड़ा होकर व्यक्ति जब समाज में व्यवहार करता है। तब समाज भी दोहरेपन का शिकार होगा ही। अर्थात दोहरे व झूठे व्यक्तित्व वाले लोगों से समाज में भी झूठ का व्यवहार ही तो सम्भव हो पाता है। इस दोहरे मन वाले समाज में रहने के कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व में भी बिखराव आता है। अंततः सुख-शांति, आनन्द, एक लयता व्यक्ति की छिनेगी ही।

जीवन में देवत्व जगायें

स्पष्ट है कि जीवन में शांति-आनन्द, प्रसन्नता लाने के लिए हमें अंदर-बाहर से एक बनकर जीने के अभ्यास की जरूरत है। अवचेतन मन के अनुसार जीवन को स्वाभाविक स्तर पर समग्रता में जीने की आवश्यकता है, यही प्रयोग हमें योगी बना देगा। समग्रता में जीवन जीते हुए समाज को समग्रता से जीने का मार्ग दिखाने वाले ही योगी, संत, महापुरुष, पथ प्रदर्शक, सच्चे मानव कहे जाते हैं। जो समग्रता में जियेगा, वह मोह-दुःख से भी मुक्त होगा। ऐसे ही व्यक्ति में आत्मज्ञान का जागरण होता है। ऐसे कर्मयोगी के लिए जीवन कर्म आनन्द का कारक बनता है। क्योंकि वह जो कुछ करता है, उसे पूरी तल्लीनता से करता है।

वह सुनता है तो संगीत की भाषा में, वह बोलता है तो लय की भाषा में, कार्य करता है तो कर्मयोगी की भाषा में, समाज के बीच जीता है तो देवत्व की भाषा में। तो आइये! हम सब अपने को अखण्डित मन वाला बनाकर समाज को अखण्ड बनायें। जीवन में देवत्व जगायें। अखण्डित मन ही सच्चे मानव की पहचान है।

 

 

 डॉ- अर्चिका दीदी

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