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मन रोगी तो तन रोगी, मन स्वस्थ तो तन निरोगी

मन रोगी तो तन रोगी, मन स्वस्थ तो तन निरोगी

मन रोगी तो तन रोगी, मन स्वस्थ तो तन निरोगी

मन रोगी तो तन रोगी, मन स्वस्थ तो तन निरोगी, मन शरीर का इंजीनियर भी है, इसलिए इसे स्वास्थ्य चैतन्यता से भरे रहना आवश्यक है।

मन रोगी तो तन रोगी, मन स्वस्थ तो तन निरोगी

शरीर के समस्त रोगों में कहीं न कहीं मन का सम्बन्ध होता है। समस्त रोगों का उद्गम स्थल मन ही है। मन रोगी तो तन रोगी, मन स्वस्थ तो तन निरोगी, मन शरीर का इंजीनियर भी है, इसलिए इसे स्वास्थ्य चैतन्यता से भरे रहना आवश्यक है। इस मन को बदलने में योग एवं ध्यान दोनों का महत्वपूर्ण स्थान है।

ध्यान और योग

योग मार्ग से जहां साधक शरीर के सहारे मन फिर आत्मा की ओर चलता है, वहीं ध्यान में साधक आत्मा के मार्ग से मन, फिर शरीर पर नियंत्रण बनाता है। पर दोनों का शरीर, मन व आत्मा पर सम्पूर्ण नियंत्रण का ही एक मात्र लक्ष्य है। हम सर्व प्रथम योग को लेते हैं, वैसे तो योग अध्यात्म का विषय है किन्तु इस समय योग विज्ञान के विकास की मुख्य धारा स्वास्थ्य-विज्ञान की दिशा में पहुंच गयी है।

चिकित्सा पद्धति में योग

आज योग की आध्यात्मिक तथा स्वास्थकर उपयोगिता पर जोर-शोर से आवाज भी उठने लगी है। विभिन्न योग संस्थानों में हो रहे शोध कार्यों से स्पष्ट है कि योग से लगभग अधिकांश रोगों की चिकित्सा की जा रही है। योग अब चिकित्सा पद्धति के रूप में स्थापित होता जा रहा है। अतः योग विज्ञान के ऐतिहासिक, दार्शनिक, समाज वैज्ञानिक तथा शैक्षणिक पक्षों पर अधिक अनुसंधान किये जाने की आवश्यकता है।

स्वास्थ्य के परिमाप क्या हैं ?

मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक तथा बौद्धिक अवस्था के संयोजन को स्वास्थ्य कहते हैं।

आधुनिक समय में होने वाले अधिकांश रोग मनुष्य मन तथा उसके पर्यावरण के बीच तालमेल (सामंजस्य) न बन पाने के कारण उत्पन्न होते हैं। योगाभ्यास मनुष्य  के मनोदैहिक व्यवस्था में तालमेल की क्षमता प्रदान करके उसे विभिÂ रोगों से बचाता है। ‘योग’ वैज्ञानिक साधना पद्धति है, जिसका उद्देश्य मानव का सर्वांगीण विकास है। योग साधना विशेष आध्यात्मिक कला है।

मन स्वास्थ्य रक्षक और रोगभक्षक ?

इसके बहुआयामी उद्देश्य हैं, इसलिए इसकी साधना-पद्धति भी बहुआयामी है। भगवद्गीता में ज्ञान-कर्म और भक्ति मार्ग से योग-साधना की अवधारणा प्रस्तुत की गयी है। पतंजलि योगदर्शन में अष्टांग योग का व्यापक वर्णन है। ‘ध्यान’ की बात करते हुये हम चिकित्सकीय

आधार पर देखते हैं कि ‘ध्यान’ के पश्चात् मन का गुण और स्वभाव बदल जाता है। मन स्वास्थ्य रक्षक और रोगभक्षक की भूमिका भी निभाता है। मन चेतना के विकास का अंग है, शरीर का इंजीनियर है, इसलिए नाड़ी मंडल, मस्तिष्कीय चुम्बकत्व और चिंन्तनधारा की सहायता से मन का कार्य सम्पन्न होता है। मन के कार्य का केन्द्र बिन्दु है ‘मस्तिष्क’, जो पूरे शरीर को नियंत्रित करता है।

ध्यान’ का लक्ष्य

शोध से ज्ञात हुआ कि किसी प्रकार की असाध्य बीमारी होने के 3 या 6 महीने पूर्व मन के परमाणुओं में परिवर्तन शुरू हो जाता है। इसलिए योग व ध्यान द्वारा मन को नियंत्रित करने से सभी शारीरिक और मानसिक व्याधियां स्वयं दूर होने लगती हैं और ‘ध्यान’ का यही लक्ष्य है। ‘ध्यान’ अहंकार के मानकीकरण, अहम् के विसर्जन, चेतना के जागरण तथा जीवन के रूपान्तरण का महाविज्ञान सम्मत प्रयोग है। इसलिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है।

इसप्रकार सम्पूर्ण अचेतन को समग्र चैतन्य बनाने का कार्य करता है ‘ध्यान योग’। वैसे सम्पूर्ण अचेतन को समग्र चैतन्य बनाने वाले ध्यान के कई प्रयोग हैं। ध्यान में मन विभिन्न प्रवृत्तियों से मुक्त होकर श्वांस-प्रश्वास सहित सतत सजग स्मृति में डूबा रहता है वैसी स्थिति में मन के

द्वार खुलने लगते हैं। श्वांस और मन दूध और पानी की तरह एक में मिले हैं।

स्वास्थ्य चैतन्यता उदय के महत्वपूर्ण कारक

फ्रायड के अनुसार अचेतन मन में दमित, उपेक्षित और अव्यवस्थित विचारों का जमाव होने के कारण विध्वंसक तथा कुंठित भावनाओं का ध्रुवीकरण हो जाता है। पर ध्यान से ये विचार, चेतना तल पर आकर विसर्जित और विलीन होने लगते है। शारीरिक रोग की स्थिति में अपनी शक्ति अनुसार साधक बैठकर, लेटकर या खड़े होकर, रीढ़ को सीधा रखते हुए ध्यान करें अथवा शरीर को स्थिर, एक आसन में 15 से 45 मिनट शांत, शिथिल तथा तनाव रहित छोड़ दें। दोनों पैरों के मध्य 45 डिग्री तथा हाथ एवं बगल के मध्य 15 डिग्री का फासला रखें। हाथों को सीधा रखते हुए अंगुलियों को थोड़ा सा मोड़ें तथा शिथिलीकरण व शवाआसन की तरह अभ्यास करें। अभ्यास किसी योग्य तथा कुशल योग शिक्षक की देखरेख में करें। इन सबके सकारात्मक परिणाम मिलेंगे, ध्यान और योग से साधक में उच्चस्तरीय चेतना का उदय होगा और मन, भाव, शरीर सब कुछ स्वस्थ रहेगा।

डॉ अर्चिका दीदी