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गुरु पूर्णिमा-आध्यात्मिक पूर्णता का महापर्व

गुरु पूर्णिमा-आध्यात्मिक पूर्णता का महापर्व

गुरु पूर्णिमा -आध्यात्मिक पूर्णता का महापर्व

गुरु पूर्णिमा विशेष :क्षण मात्र गुरु सान्निध्य और गुरु गौरव गान से जीवात्मा के सद्गति का योग सहज बन जाता है। स्वयं भगवान शिव देवी पार्वती से कहते हैं गुरु सम्पूर्ण जप, पूजा, उपासना, ध्यान आदि का मूल है

गुरु पूर्णिमा -आध्यात्मिक पूर्णता का महापर्व

ईश्वर की कृपा से हर इंसान का जन्म मां की कोख से होता है, लेकिन उसे जीवन की आध्यात्मिक सफलता गुरु की चरण-शरण से प्राप्त होती है। शास्त्र गुरुभक्ति के प्रताप की महिमा बताते हुए कहते हैं कि क्षण मात्र गुरु सान्निध्य और गुरु गौरव गान से जीवात्मा के सद्गति का योग सहज बन जाता है। स्वयं भगवान शिव देवी पार्वती से कहते हैं गुरु सम्पूर्ण जप, पूजा, उपासना, ध्यान आदि का मूल है

‘‘ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोःपदम्। मंत्रमूलं गेरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोःकृपा।।’’

अर्थात् गुरुमूर्ति ध्यान का मूल है, गुरु चरण पूजा का मूल है, गुरु वाक्य कल्याणकारक मूलमंत्र है और गुरुदेव की कृपा साक्षात् मोक्ष का मूल है। अर्थात् हर शिष्य के लिए गुरु ही उसके जीवन, ज्ञान, तप, संकल्प, सेवा के मूल आधार होते हैं, उसी से मनुष्य को अज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़ने की ऊर्जा शक्ति मिलती है। इस दृष्टि से गुरु और शिष्य का सम्बन्ध चेतना के उच्च धरातल का सम्बंध माना गया है। इस दृष्टि से प्रति वर्ष आने वाली गुरु पूर्णिमा गुरु-शिष्य की आध्यात्मिक पूर्णता की अनुभूति का महोत्सव कह सकते हैं।

गुरु-शिष्य का सम्बंध जन्म-जन्मांतर का है

गुरु-शिष्य का सम्बंध इसी जन्म का नहीं होता, अपितु अनेक जन्मों का, जन्म-जन्मांतर का होता है। शिष्य व गुरु के जन्म अवश्य बदल सकते हैं, पर दोनों के बीच जुड़ी प्रगाढ़ डोर अनन्तकाल तक के लिए जुड़ी रहती है ऐसी शास्त्रीय मान्यता है। गुरु-शिष्य के बीच यह तारतम्यता सभी धर्मों में समान है। गुरु द्वारा शिष्य के साथ जन्मों तक साथ निभाना, गुरु द्वारा भावी शिष्य की वर्षों तक प्र्रतीक्षा करने के अनेक उदाहरण हमारे गुरु-शिष्य परम्परा में भरे पडे़ हैं।

फकीर बायजीद की कहानी

इसे हम ‘सूफी फकीर बायजीद’ के उदाहरण से समझ सकते हैं, बायजीद ने स्वयं जिक्र किया है कि वे अपने गुरु के तलाश में थे। उनकी तड़प अत्यंत तीव्र होती जा रही थी। वे खोजते-खोजते एक जलाशय के पास पहुचे, तभी वहां एक फकीर पहुंचा और कहने लगा आप चाहें तो मैं बता दूं आप क्यों परेशान हैं? जिसके लिये परेशान हैं? और वह किस स्थिति, किन लक्षणों के साथ मिलेगा? आप चाहें तो अपने गुरु को निश्चित पा सकते हैं। बायजीद उत्साहित हुए, पर उस फकीर के बताये अनुसार खोजते-खोजते बारह साल से अधिक का समय गुजर गया। अब बायजीद को निराशा घेरने लगी, पर उनका अंतःकरण उस फकीर की बातों पर आज भी गहरा विश्वास जगा रहा था। एक शाम बायजीद हताश होकर एक सुनसान जगह पर बैठे थे, तभी उन्हें दूर झाड़ियों में एक अलौकिक रोशनी दिखी। वे कौतूहल के साथ उस रोशनी की ओर बढ़ चले।

बायजीद ने झुरमुट के पास पहुंच कर देखा तो वहां फटे-पुराने कपडे़ में एक बूढ़ा आदमी बैठा था और उसमें फकीर के बताये अनुसार वे सभी लक्षण नजर नजर आ रहे थे, जिसकी वह खोज में था। बायजीद खुशी से झूम उठा और श्रद्धा भरे मन से उसने उस फकीर के पांव पकड़ लिए। फकीर ने भी बायजीद के सिर पर स्नेह भरा हाथ फेरते हुए बोला-

‘‘उठो मेरे बच्चे! मैं तुम्हारा कब से इंतजार कर रहा था।’’

बायजीद को उस फकीर की आवाज जानी-पहचानी लगी, उसने सिर उठाकर उस बूढ़े चेहरे को देखा, तो आश्चर्य में चीख पड़ा और भावुक स्वर में बायजीद ने फकीर से पूछा- कि आप तो वही फकीर हो न, जिसने आज से बारह साल पहले हमारे गुरु के लक्षण बताए थे।

‘‘मेरे गुरुदेव! आपने मुझे क्यों भटकने को छोड़ दिया, उसी समय क्यों नहीं अपना शिष्य बना लिया?’’ तब फकीर ने कहा ‘‘मेरे बच्चे! उस समय तुममें शिष्य लायक परिपक्वता नहीं थी, इसलिए हमारे बताये लक्षणों को तुम हमारे अंदर देख नहीं पाये। इतने वर्षों में तुम्हारी तड़पन और तपःपूर्ण जिन्दगी ने मुझे गुरु रूप में वरण करने के योग्य बना दिया है। अब तुम्हारी दृष्टि खुल गयी है, तुम गुरु मंत्र धारण करने के योग्य बन चुके हो और मैं तुम्हारा गुरु बनने के लिए तैयार हूं।’’ कहने का आशय है शिष्य में अपने गुरु को पहचानने की क्षमता और गुरु द्वारा किसी को शिष्य रूप में वरण करने की स्थिति के बीच कुछ निश्चित आध्यात्मिक मापदण्ड होते हैं, अन्यथा परस्पर सामने बैठे गुरु-शिष्य भी जन्मों तक एक दूसरे को अपना नहीं पाते।

गुरु पूर्णिमा –  योग्य दुर्लभ दृष्टि जगाने का अवसर

गुरु पूर्णिमा प्रतिवर्ष हम सबके जीवन में गुरु को पहचानने और शिष्य भाव को परिपक्व करके गुरु धारण करने योग्य दुर्लभ दृष्टि जगाने का अवसर लेकर आती है, जो परिपक्व हो चुके हैं, उनको गुरु वरण करने और शिष्य बनने का सौभाग्य मिलता है, उन्हें गुरु पूर्णिमा पूर्णता का वरदान देती है। जिन साधकों में गुरु धारण करने की परिपक्वता जग जाती है, उन्हें सद्गुरु अपना लेते हैं। शिष्य भाव जागते ही गुरु की समस्त विद्याएं और क्षमताएं शिष्य की हो जाती हैं और शिष्य गुरु भाव से भर उठता है।

इस प्रकार इस विशेष अवसर पर प्राप्त गुरुमंत्र सद्गुरु का शिष्य के लिए दिव्य आशीष बन जाता है, गुरुपर्व उस आशीष की अभिव्यक्ति भी है। कहते हैं शिष्यों को हर पूर्णिमा तिथि पर गुरुदर्शन करने से सोलह कलाओं से युक्त पूर्ण चन्द्र का आशीर्वाद मिलता है। जबकि गुरुपूर्णिमा पर शिष्य द्वारा गुरु दर्शन-पादपूजन से उसके जीवन पर सूक्ष्म जगत के संतों-ऋषियों एवं भगवान सभी की कृपा बरसती है। शिष्य के सौभाग्य का उदय होता है। इसे आध्यात्मिक सम्पूर्णता का महापर्व भी कहा जाता है।

क्या विशेष करें गुरु पूर्णिमा के दिन

इसीलिए इस खास दिवस गुरु पूर्णिमा पर हर शिष्य को अपने गुरुधाम पहुंचकर गुरु के दर्शन-पादपूजन, गुरुदक्षिणा देने, गुरु-चरणों में बैठने का लाभ अवश्य लेना चाहिए, भले उसका गुरु सात समंदर पार ही क्यों न बसता हो। इससे शिष्य के जीवन में पूर्व जन्म के संस्कारों का पुण्य फलित होता है, पविार में सुख, शांति, समृद्धि की वर्षा होती है। वास्तव मेंं विविध अवसरों पर सद्गुरुओं, सच्चे संतों का आदर सम्मान, गुरु पूजा करना, गुरुदक्षिणा देना किसी व्यक्ति के आदर तक ही सीमित नहीं रहता, अपितु वह साक्षात् सच्चिदानन्द परमेश्वर का आदर बन जाता है। इस पर्व पर गुरु के दर पर किया गया दान-पुण्य, गुरुकार्यों में किसी भी तरह का सहयोग अनंत फलदायी होता है। गुरु कृपा से उसकी झोली सुख-समृद्धि से आजीवन भरी रहती है।

आइये हम सब अपने एक-एक पल का सदुपयोग करते हुए आनन्द, शक्ति, शांति के साथ गुरुधाम पधारने, गुरु संगत-सानिध्य में रहने का अवसर तलाशें, सम्भव है हमारा शिष्य भाव परिपक्व होकर हमारे भी जीवन में गुरु घटित हो पडे़ और गुरु-शिष्य के अनुपम योग का सौभाग्य मिल जाये।

डॉ अर्चिका दीदी