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जब जगता है समर्पण भाव

जब जगता है समर्पण भाव

जब जगता है समर्पण भाव | Guru Purnima | Dr Archika Didi | July | 2019

वास्तव में गुरु शिष्य का संबंध प्रारम्भ ही होता है, जब हम अपने आपको गुरु के हवाले करें। हमारे जीवन में भी काश महाकश्यप जैसा समर्पण भाव जग जाए।

जब जगता है समर्पण भाव

महाकश्यप महात्मा बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में एक थे। वे महात्मा बुद्ध के चैतन्य ज्ञान को सदैव गंभीरता से सुनते और प्रायः मन में विचार करते रहते कि किस तरह मैं बुद्ध की शरण में पूरी तरह जा पाऊं। उनसे मिलकर मैं संसार की सारी सीमाओं को तोड़कर असीम के साथ अपना नाता जोड़ सकूं।

कहते हैं महाकश्यप इसी भावना से ओत-प्रोत होकर चित्त की भूमि को भावमय बनाकर गुरु शरण में लगे रहे। जैसे-जैसे वे भाव अवस्था से गुरु के निकट होते गए, वैसे-वैसे उनका पूरा अंतर्मन गुरु के प्रेम में गद्गद होता गया।

एक दिन वे इसी भाव भूमि में गुरु के पास गए, उन्होंने जब प्रेम से गुरु के चरणों का स्पर्श किया, तो उस समय उन्हें लगा कि जैसे कोई विद्युत की धारा शरीर में प्रवाहित हो गयी हो। अचानक उनके आंखों में आंसू बहने लगे। गुरु ने भी अपना प्रेम भरा हाथ शिष्य के सिर के ऊपर रखा।

न मैं शरीर हूं, न मन हूं, न आत्मा हूं, मेरा जो कुछ था, वह बह गया और सागर में मिल गया

गुरु का आशीर्वाद प्राप्त कर महाकश्यप एक चट्टान पर जाकर बैठे तो अद्भुत विचार उमड़ने लगे कि – न मैं शरीर हूं, न मन हूं, न आत्मा हूं, मेरा जो कुछ था, वह बह गया और सागर में मिल गया। ऐसा सोचते ही उनमें एकाएक भाव आया कि अब तुझे भी उसी में समाहित होना है और लगा जैसे किसी ने खींचकर ध्यान में डुबो दिया। ध्यान टिका,  वह इतने आनंदित हो गए कि उन्हें लगने लगा कि मेरे गुरु चारों ओर से मेरे लिए द्वार खोल रहे हैं। महाकश्यप इसी तरह बहुत समय तक आनंद में डूबे रहे। वह ध्यान से उठे और एक पेड़ के नीचे जाकर पूरी मस्ती में हाथ लहराकर झूमने लगा।

महात्मा बुद्ध के शिष्य आनंद ने जब महाकश्यप का यह दृश्य देखा तो अंदर से आध्यात्मिक ईर्ष्या से भर उठे। आनन्द से न रहा गया तो उन्होंने बुद्ध से प्रश्न किया कि प्रभु! मैं जानना चाहता हूं कि यह व्यक्ति अभी-अभी आया, आते आपके चरणों का स्पर्श किया, आपका ध्यान किया, फिर वह इतना आनंदित हो कैसे गया। जबकि मैंने बरसों आपकी सेवा की, आपके पांव भी छुए, आपकी निकटता ग्रहण की। पर आपने मुझे कभी ऐसा आशीर्वाद नहीं दिया, इसमें कैसे सब कुछ घट गया। ऐसा कैसे हो सकता है? आपने इसे जरूर कुछ अधिक ही दे दिया है।

महात्मा बुद्ध ने मुस्कुराते हुए क्या कहा?

तब महात्मा बुद्ध धीरे से मुस्कुराते हुए कहा-आनंद जरा ध्यान से देखो उसकी आंखों को, जैसे कोई नशा उतर आया हो और उस नशे में डूबकर वह कुछ अलग-सा दिख रहा हो। आनंद को रहा न गया और फिर पूछा प्रभु! मेरे अंदर वह बात क्यों नहीं घटी? बारम्बार ऐसा कहने पर महात्मा बुद्ध ने आनन्द को याद दिलाया कि जिस दिन तुम्हें दीक्षा लेनी थी, उस दिन तुमने मेरे सामने तीन शर्ते रखी थीं। एक यह कि मैं हमेशा आपके साथ रहूंगा, मुझे कभी दूर मत करना। दूसरी शर्त कि जिस कमरे में बुद्ध सोयें, उसी में मैं भी सोऊंगा। तीसरी शर्त थी कि अगर कभी मैं किसी को आपसे मिलाना चाहूं तो आप मिलने से इंकार नहीं करेंगे।

महात्मा बुद्ध ने कहा आनंद! तुमने मुझसे सारी बाते स्वीकार करवाई। इन शर्तों के साथ तुमने मुझसे दीक्षा ली। इस प्रकार तुम्हारी ‘मैं’ इन शर्तों में ही अटक गई, आज भी तुम सोचते हो कि मैं सबसे ज्यादा निकट हूं, अपनी बात मनवा सकता हूं। वास्तव में तुम मिटे नहीं, अंदर से हमारे हुए नहीं।

जबकि महाकश्यप तो पहले ही मिटने की पूर्ण तैयारी करके आया था जब वह यहां आया, तब भी उसने अपनी मैं को अपने आंसुओं के साथ बहा दिया था और अपनी समस्त चेतना को मुझमे समर्पित कर दिया। सच में कहूं तो भाव अवस्था में मुझसे उसने अपने आपको जोड़ लिया। यहीं तुम चूक गये।

अपनी चलाते समय समर्पण गायब हो जाता है

वास्तव में आनन्द अपनी चलाते समय समर्पण गायब हो जाता है, यह बात तुम भूल गये। जबकि सच्चे शिष्य का पहला समर्पण गुरु के प्रति सर्वस्व न्योछावर करना होता है। गुरु के प्रतिसमर्पण उसी तरह से हो, जैसे परमेश्वर ही मिल गए हों। बुद्ध ने समझाया जिसने गुरु के समक्ष अपने आपको निश्चिंत छोड़ दिया, तो उसके अंदर निश्चिंतता आकर ही रहेगी। बस यही अतंर है तुममें और महाकश्यप में। इसलिए उसे मिल गया, तुम जो थे वही रह गये। समर्पण के बिना तुम सहायक बने रह सकते हो, पर सच्चे शिष्य नहीं। ऐसा सुनकर आनन्द ने गुरुवर के चरण पकड़ लिए और अपनी नयी यात्र शुरू करने की तैयारी करने लगे।

वास्तव में गुरु शिष्य का संबंध प्रारम्भ ही होता है, जब हम अपने आपको गुरु के हवाले करें। वह जैसे रखे, हंसाएं या रुलाएं इससे कुछ फर्क न पड़े, जब मन में इस तरह की भावना जागृत हो जाए, तो दुःख हो ही नहीं सकता। बुद्ध ने कहा एक गूढ़ रहस्य सुनों आनन्द मैं तो मंजिल की सीढ़ी भर हूं। जब आप आखिरी पड़ाव पर पहुंच जाते हैं, तो वहां भक्ति की जरूरत नहीं पड़ती सद्गुरु शिष्य को भगवान से मिलाते भर हैं। सद्गुरु मन्त्र देते हैं, परमात्मा को पाने का, जीवन में जाग जाने का। जिससे व्यक्ति की कायरता टूट जाए और उसमें वीरता जाग जाए। आनन्द ने महात्मा बुद्ध के चरण पकड़ लिए क्षमा मांगी और समर्पण के लिए आत्म समीक्षा में जुट पड़े। हमारे जीवन में भी काश महाकश्यप जैसा समर्पण भाव जग सकता।

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