भारत ऋषियों और गुरुओं का देश है। भारत में ‘गुरु’ परम्परा सदियों से चलती आयी है। दुनिया में सबसे बड़ा रिश्ता ‘गुरु’ का है। गुरु के साथ रिश्ता निभाने का एक ही मार्ग है गुरु के प्रति शिष्य की निष्ठा और श्रद्धा का प्रगाढ़ होना। यह श्रद्धा ही शिष्य को ज्ञान से भरती है।
अनन्तकाल से गुरुओं के इस देश में चारों तरफ ज्ञान का साम्राज्य था, जो व्यक्ति को मनुष्य से देवता बनाने के लिए प्रेरणा देता रहता था। चीनी यात्री फ़ाहियान ने लिखा-भारत देश ऊंचा है तो गुरुओं के कारण। “वेनसांग कहता है इस देश में ऊंचाई दिखाई देती है तो गुरुओं के कारण। मैगस्थनीज अपने संस्मरण में आश्चर्य से लिखता है कि ‘‘मैंने देखा इस देश में सोने की छड़ रास्ते में गाड़ दी गयी और डेढ़ साल के बाद आकर देखी तो किसी ने उसे नहीं उठाया। आस-पास के लोगों से पूछा गया कि क्या सोना अच्छा नहीं लगता? तो जवाब देने वाले ने कहा कि सोना सदा कीमती है, लेकिन जो वस्तु हमने परिश्रम करके नहीं कमाई, वह धन अगर अपने घर ले भी आये, तो पाप का धन परिवार के सदस्यों का मन विकृत करेगा, बुद्धि बिगाड़ेगा।
विवेक भ्रष्ट होगा तो सब में न कमाने की आदत पड़ेगी और इससे अंततः बच्चे बिगड़ जाते हैं। घर में अशान्ति पैदा होती है। मैगस्थनीज कहता है कि यह मेरे लिये आश्चर्यजनक बात थी। वास्तव में यही है हमारे देश के गुरुओं द्वारा राष्ट्र के लिए शिष्यों में गढ़ा गया चरित्र जो व्यापक स्तरपर राष्ट्रीय चरित्र बनकर प्रकट हुआ। सम्पूर्ण विश्व इससे आश्चर्य चकित होता रहा। शिक्षा नीति भी हमारे यहां की इसी स्तर की थी।
जब कभी एक महान गुरु और एक महान शिष्य, योग्य गुरु और योग्य शिष्य आमने-सामने हो, तो युग ने करवट लिया है। योग्य गुरु और योग्य शिष्य का यह मिलन ऐतिहासिक घटनाओं का कारण बनता रहता है। ये सच है कि दो योग्य विभूतियां एक साथ आकर बड़ी क्रांति करती हैं। तब लोक में कोई-न-कोई महान घटनायें अवश्य घट जाती हैं। जीवन में एक महान रूपातंरण होता है। चाणक्य और चंद्रगुप्त, रामानन्द और कबीर, समर्थ गुरु रामदास एवं छत्रपति शिवाजी, विश्वामित्र-श्रीराम, श्रीकृष्ण और अर्जुन, रामकृष्ण परमहंस एवं स्वामी विवेकानन्द आदि का मिलन यही तो संदेश देता है। यह सान्निध्य यह भी बताता है कि किसी महान गुरु के पास हजारों शिष्य होने आवश्यक नहीं, आवश्यकता है मात्र एक, पर समर्थ शिष्य की।
अनेक उदाहरण है जब दिव्य प्राण अग्नि को अपने भीतर प्रज्जवलित करने वाला समर्पित एक भी शिष्य किसी समर्थ गुरु को मिला, तो उसने गुरु की महान कीर्ति दुनिया के सामने अवश्य रखी है। क्योंकि तब ही कोई गुरु उस शिष्य में अपने को पूर्णतः उड़ेलकर रख देता है। रामकृष्ण परमहंस का पूरा स्वरूप विवेकानंद के अंदर ही तो उतरा। योग्य गुरु और योग्य शिष्य के मिलन का प्रभाव अवश्य ही होता है। समर्थ गुरु रामदास योग्य गुरु थे और शिवाजी योग्य शिष्य तभी धरती पर एक नया चमत्कार घटा। मुनि संदीपनि की कुटिया में भगवान कृष्ण पधारे। चौंसठ दिनों में ही भावी भारत की रूप रेखा तैयार हो गयी। इस प्रकार भारत देश में गुरुओं की अनोखी महिमा रही है।
भगवान् भी अगर अवतार लेकर धरती पर आये, तो उन्हें भी गुरु के चरणों में बैठना पड़ा है, तभी उनका ईश्वरत्व प्रकट हो पाया। गुरु ही वह सब चैतन्य उद्घाटित करता है, जो शिष्य में युगों से शुप्त पड़ा होता है। इसीलिए कहते हैं गुरु के बिना गति नहीं। शतपथ ब्राह्मण कहता है कि व्यक्ति के तीन गुरु हैं-मां, पिता और सद्गुरु। ‘‘मातृमान पितृमान आचार्यवान पुरुषोवेदः’’ अर्थात् बालक को सर्वप्रथम माता-पिता ही संस्कार देते हैं इसलिए वे प्रथम गुरु हुए। पर उसे सही पथ पर ले जाने का कार्य सद्गुरु ही करता है।
शरीर रूपी चादर परमात्मा ने शिष्य रूप में दी है। पर जब शिष्य गुरु से निवेदन करता है कि यह चादर माता-पिता की चेतना से बन तो गई, लेकिन इसे रंगने का कार्य आपका है। तब गुरु उसे ऊंचा उठाते हैं। खास बात यह भी कि जीवन में पवित्रता के अनुरूप निखरी पात्रता से ही उसे सद्गुरुदेव मिलते हैं और चादर में रंग भरते हैं। परिणामतः चादर अर्थात् जीवन अत्यन्त मूल्यवान बन जाता है। क्योंकि गुरुदेव एक साधारण से इंसान को ऐसा रूप देते हैं कि वह सारे संसार में पूजनीय बन जाता है। शिष्य में यह चमत्कार भरा रूपांतरण गुरु ही करता है। इसीलिए गुरु को शिष्य के अंदर सुप्त पड़ी शक्तियों का उद्घाटक कहते हैं।
परमात्मा द्वारा दिये इस मानव तन रूपी चादर को गुरु द्वारा रंगना इस धरती का अनोखा रूपांतरण है। इसके लिए गुरु और शिष्य दोनों मिलकर प्रयास करते हैं। शिष्य अपने मन के ऊपर अंकित वासनाओं के बीज को ज्ञान, वैराग्य और भक्ति से जलाने का प्रयास करता है। शिष्य का यह शक्ति महापुरुषों सद्गुरुओं के संग से मिलती है। फिर शिष्य के जीवन की धारा बदल जाती है। परमात्मा व गुरु की कृपा से जिन व्यक्तियों के अन्तःकरण निर्मल हो जाते हैं, वे झुकते हैं और दुनिया को अपने सद्गुणों से झुकाकर दिखा देते हैं। गुरुकृपा से सबसे पहले शिष्य के जीवन में यह रूपान्तरण होता है। क्रांति घटती है, भक्ति की लहर जगती है। धर्म की तरफ रुचि जगती है। फिर यह क्रांति समाज में विस्तार पाती है।
शिष्य को किस मार्ग पर चलने से कल्याण हो सकता है? भक्ति, ज्ञान व वैराग्य में किस मार्ग को अपनाने से उसका कल्याण होगा? शिष्य के इन प्रश्नों का उत्तर सद्गुरु सहज शिष्य की चेतना की गहराई में उतर कर देते रहते हैं।
इस प्रकार गुरुप्रयास करता है कि इस बुझे हुए दीपक में ज्योति प्रकाशित हो। अग्निना अग्निं समिध्यते। यही है ज्योति से ज्योति का जलना।
इस प्रकार शिष्य का जीवन जब गुरु के साथ जुड़ता है, तो जीवन अनुशासित व रूपांतरित हो जाता है। गुरु से जुड़ने पर व्यक्ति का जीवन गुरुअनुशासन, पूर्णजप में, जप ध्यान में, ध्यान समाधि में और समाधि मुक्ति में परिवर्तित होने लगती है और शिष्य के चौरासी लाख योनियों का चक्कर मिट जाता है।
वास्तव में सच्चे सद्गुरु के अभाव में आज असंख्य शिष्य रूपी करोड़ों बुझे हुए दीपक निरर्थक पड़े हैं। जरूरत है जलते हुए एक दीपक के साथ करोड़ों बुझे दीपकों को जोड़ने की। यही युग धर्म है।