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गुरु पूर्णिमा विशेष – धारा को सम्पूर्ण मंगलमय ऊर्जा र्जा से भरता है सद्गुरु

गुरु पूर्णिमा विशेष – धारा को सम्पूर्ण मंगलमय ऊर्जा र्जा से भरता है सद्गुरु

धारा को सम्पूर्ण मंगलमय ऊर्जा र्जा से भरता है सद्गुरु

हमारी गुरु परम्परा द्वारा अंतःकरण में जगाये देवभाव के सहारे ही अनंतकाल से यह भारत देश व हमारी सनातन संस्कृति के साधक दान, सेवा, त्याग, शांति के साधक बने।

धारा को सम्पूर्ण मंगलमय ऊर्जा र्जा से भरता है सद्गुरु

किसी संत ने कहा ‘‘एक ईश्वर वह है, जिसने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की और एक ईश्वर वह है, जिसको व्यक्ति ने अपनी आदतों, इच्छाओं के अनुरूप रचा है।’’ व्यक्ति अपने बनाये ईश्वर के निकट ही रहना चाहता है, इसीलिए उसके जीवन से असली ईश्वर मीलों दूर है। ऐसा व्यक्ति वह आत्मकल्याण की बात तो दूर अपने लोक व्यवहार के पालन तक में असफल रहता है। सद्गुरु कृपा करके उसे अपने बनाये काल्पनिक ईश्वरीय अवधारणा से बाहर निकालता और उस असली ईश्वर से मिलाता है। सद्गुरु ही उसकी धारणाओं को सही दिशा देता है, सद्गुरु ही अनुभव कराता है कि भगवान केवल जिंदगी देता है, पर जिंदगी का उपयोग करना सीखना पड़ता है। यहीं से व्यक्ति में जागरण प्रारम्भ होता है।

गुरुतत्व से सही जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है

जैसे माता-पिता जन्म देते हैं, पर कर्त्तव्य पूरा करके जिंदगी स्वयं जीनी पड़ती है। माँ 9 महीने पेट में रखती है व 9 साल तक संभालती है, 18 साल तक पिता संभालता है, लेकिन नौजवान होते ही पिता की उंगली छोड़कर अपनी जिंदगी स्वयं जीनी पड़ती है। इस जिन्दगी को सही ढंग से जी सकें, इसलिए गुरु हाथ पकड़ता है। गुरु का रिश्ता जीवन से भी आगे तक जाता है। जो रिश्ता अनेक जन्मों तक चलता है, वह केवल सद्गुरु का रिश्ता है। गुरुओं, संतों, योगियों की कृपा व वैदिक, ग्रन्थों, धर्म शास्त्रों, नीतिग्रन्थों, धार्मिक, दार्शनिक व आध्यात्मिक ग्रन्थों में समाये गुरुतत्व से सही जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है। कष्ट-क्लेशों व दुःखों के निवारण की दृष्टि मिलती है तथा परमानन्द की प्राप्ति होती है, असंभव को सम्भव बनाने की प्रेरणा मिलती है।

गुरु शब्द का अर्थ

इससे स्पष्ट है जीवन में गुरु-शिष्य के मिलन से नव चेतना का सृजन सम्भव होता है। “गृ’’ धातु से गुरु शब्द का निर्माण हुआ है, इसमें गृ का अर्थ है निगल लेना अर्थात गुरु जो शिष्य के पापों को निगलता है। इसी क्रम में “गु” का अर्थ है फ्अन्धकार’, ‘‘रु’’ का अर्थ है ‘प्रकाश’ अर्थात जो अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चले, अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चले, सत्पथ-सुपथ, स्वस्ति-पथ पर ले चले वह गुरु कहलाता है। साधना ही नहीं जीवन के हर पथ में गुरु वरन करने की जरूरत होती है। गुरु-शिष्य का रिश्ता प्रकाश, ज्ञान, भावना, साधना का रिश्ता है, जो शिष्य में ईश्वर का राजकुमार होने का गौरव जगाता है। वैसे भी हर महानता के पीछे एक शक्ति दिखाई देती है, वह गुरु की शक्ति है। सारे महान व्यक्तियों के सामर्थ्य के पीछे समर्थ गुरु की शक्ति होती है। अतः शिष्य को सावधान होकर अनुभव करना चाहिए कि गुरु पीछे खड़ा हुआ है।

 

इस धरा पर गुरु द्वारा स्थापित असंख्य तीर्थ भी हमें सम्हालते हैं। अकालमृत्यु का योग तक टालते हैं। ये तीर्थ अपना सुपरिणाम तब दिखाते हैं, जब अंतःकरण में उसके सत्व को स्थापित कर लिया जाता है। समर्पित शिष्य अपने गुरु-परमात्मा से यही अर्चना तो करता हुआ गुरु द्वारा दिये मंत्रनुशासन के सहारे गुरु संकल्पित तीर्थ को ही तो अंतःकरण में धारण करता है, जिससे उसका जीवन ही तीर्थ बन जाय-

                अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम् ।

                  पादोदकं तीर्थं जठरे धारयाम्यहम्।।

अर्थात ‘‘हे अकालमृत्यु का हरण करने वाले, सर्व व्याधियों का नाश करने वाले देवता के चरण युक्त तीर्थदेव मैं आपको अपने उदर में धारण करता हूं।’’ वास्तव में तीर्थ, गुरु व संत आरोग्य देने, भाग्य बदलने व अकाल मृत्यु को टालने तक में सक्षम होते हैं। यही तीर्थ चेतना जीवन के प्रत्येक कलुष मिटाती और जीवन को सम्पूर्ण ऊर्जा से भरती हैै। पद्यपुराण कहता है किµफ्तीर्थेषु लभ्यते साधू रामचन्द्रपरायणः।

                   यद्दर्शनं नृणां पापराशिदाहा शुशुक्षणिः।।

अध्यात्म साधना के क्षेत्र में प्रगति गुरु के प्रत्यक्ष सहयोग बिना असम्भव है। राम और लक्ष्मण का युग्म विश्वामित्र-वशिष्ठ के मार्गदर्शन से ही समर्थ बना। महाभारत की सफलता कृष्ण और अर्जुन के मिलन ने सम्भव हुई। प्रत्येक व्यत्तिफ़ को इसीलिए गुरु की आवश्यकता पड़ती है। सदगुरु का कार्य प्रभु से पहचान करा देना, उसका भत्तफ़ बना देना है। इतने भर से शिष्य की आगामी जीवन यात्र सफल हो जाती है। वैसे गुरु-शिष्य के सम्बन्धों की यात्र अनन्त जन्मों तक चलती है।

गुरु पूर्ण मनोयोग से शिष्य को अपना प्रतिबिंब मानकर उसमें संस्कार गढ़ता है।

हमें सम्भव है गुरु इसी जन्म का दिखता है, पर गुरु को हमारे अनेक जन्मों की याद है। पिछले जन्म और आने वाले अगले जन्म की भी। उसने हमें कब किन परिस्थितियों में सम्हाला, उबारा उसे सब स्मरण है, शिष्य को नहीं। इसीलिए हम अपने गुरु को अक्सर बुद्धि से देखते हैं, पर गुरु बार-बार भावना की छीटे देकर शिष्य को उबारता है और गुरु-शिष्य के बीच के अनंत कालीन रिश्ते को गहराई देता है। गुरु अपने तप-ज्ञान से शिष्य के पिछले जन्मों को दिव्य दृष्टि डालकर खंगालता है और धरा पर उसकी नई भूमिका का मार्ग प्रशस्त कराने में भूमिका निभाता है। पूर्व के संस्कारों के साथ शिष्य की गहराई जानना, उसकी चेतनात्मक भूमि को समझना और आगे के जीवन का विस्तार तय करना गुरु का महत्वपूर्ण कार्य है। वास्तव में गुरु पूर्ण मनोयोग से शिष्य को अपना प्रतिबिंब मानकर उसमें संस्कार गढ़ता, ईश्वर के प्रति आस्था भरता, जीवन में शान्ति, ज्ञान-तप की ऊर्जा भरता है।

गुरु और शिष्य जीवन और समाज में बदलाव लाते हैं।

शास्त्र कहते हैं भगवान विधान बनाता है, इसीलिए विधाता है, लेकिन उस विधान को सद्गुरु जीवन में उतारने में मदद करता है। गुरु प्रेरणा-गुरु कृपा से शिष्य आंतरिक प्रकृति के नियमों को समझकर चलने की दृष्टि पाता है। इसलिए आवश्यक है उससे सम्बन्ध बनाकर चलें। सम्बन्ध अर्थात् गुरु के प्रति अंदर श्रद्धा-निष्ठा का दिया जलाके रखें। जीवन को गुरु अनुशासन में चलाने से बुरी आदतें मिटती हैं। तब गुरु और शिष्य जीवन और समाज में बदलाव लाते हैं।

मनुष्य का जन्म रोने से शुरू होता है, यह रोना अज्ञान से आता है। आंसू भले ही उसके दिखाई न दें, आवाज सुनाई न दे पर इंसान मन से, हृदय से, आत्मा से अवश्य रो रहा होता है। मनुष्य अज्ञान के कारण ठोकरें खाता, संसार में दुःख भोगता है, बार-बार देह में भी आता है। लेकिन इस धरा पर मात्र एक गुरुसत्ता ही है, जिसकी कृपा से सत्य व ज्ञान का अंतःकरण में उदय होता है और मनुष्य को उलझनों से पार जाने की शक्ति मिलती है। गुरु की कृपा से संसार के भव बन्धन समझ में आने लगते हैं। इस प्रकार गुरुकृपा से व्यक्ति उलझनों को सुलझाता है और उससे पार भी पा जाता है। भगवान् शिव स्वयं इसी रहस्य को तो समझाते हैंµ

गूढ़ाविद्या जगन्माया देहश्चाज्ञानसम्भवः।

विज्ञानं यत्प्रसादेन गुरुशब्देन कथ्यते।।

अर्थात गूढ़ अविद्या, जगत्, माया और शरीर ये सब अज्ञान के परिणाम हैं, लेकिन जिसकी कृपा से सत्य ज्ञान का उदय होता है वह सद्गुरु ही है।

 

गुरु को जीवन में उतारने का अर्थ क्या है ?

भौतिक, अभौतिक, लौकिक और पारलौकिक सभी स्थिति में सद्गुरु आपके साथ खड़ा रहता है। ध्यान रहे अन्य रिश्ते कहीं न कहीं पहुंचकर रुक जाते हैं, पर गुरु का रिश्ता अटूट, अनन्त है। अनन्तकाल के लिए बनता है, बस शिष्य की श्रद्धा-निष्ठा, समर्पण, सज्जनता, कर्मठता, सृजन-धार्मिता में कमी न आने पाये। इसके लिए शिष्य को स्वयं रिचार्ज करते रहना पड़ता है। सद्गुरु की ऊर्जा के साथ अपने को रिचार्ज करने के अनेक अनुशासन हैं। अनेक प्रयोग हैं, जैसेµहर शिष्य गुरु संकल्पों, गुरु कार्यों, गुरु साधनाओं, गुरु अनुष्ठानों, गुरु अभियानों, गुरु सेवाओं के प्रति पूर्ण श्रद्धा के साथ समर्पित रहे। गुरु के पास बैठने, बात करने, चलने-फिरने, गुरु प्रसाद के पान आदि के नियमों का पालन करें। इसी को गुरु को जीवन में उतारना कहते हैं।

गुरु के एक-एक शब्द में कृपा बरसती है

मान्यता यह भी है कि सद्गुरु चलें तो उनकी छाया पर शिष्य का पांव नहीं आना चाहिये। सद्गुरु की उपस्थिति में शिष्य में अकड़ या अहम् का प्रदर्शन नहीं होना चाहिये। यह सब उनके द्वारा दी गयी बरकत व कृपायें होती हैं। गुरु जो देता है, केवल सद्गुरु नहीं देता, अपितु सद्गुरु के पीछे से देवी-देवता भी अपनी कृपायें देते हैं। सारे ग्रह-नक्षत्रें की कृपायें ऊपर पड़ती हैं। सम्पूर्ण गुरु परम्पराओं के साथ साक्षात नारायण की कृपा मिलती है। अतः गुरु के द्वारा दिया गया तृण भी अमृत के समान मानकर स्वीकार करना चाहिये। सद्गुरु की कृपाओं से हमारे भाग्य का निर्माण होना शुरू होता है और अंदर के दुःख-दारिद्रय बाहर निकलने शुरू होते हैं। इस प्रकार शिष्य के कर्म प्रारब्ध एवं परमात्मा के विधान के बीच गुरु बादल बनकर शुभ-पुण्य फल बरसाता है। जब भाग्य की जड़ों में गुरु एक-एक बूंद कृपा गिराता है, तो शिष्य के भाग्य की खेती लहराने लगती है। सौभाग्य-धन-वैभव, ऐश्वर्य के फल जीवन में लगने लगते हैं।

सदियों से गुरु ही हमारे सहायक एवं सचेतक रहे हैं।

सदियों से ऐसी ही गुरु शिष्य परम्परा के बल पर मानवता धन्य होती रही है। भारत को विश्व गुरु का गौरव मिला। हमारी गुरु परम्परा द्वारा अंतःकरण में जगाये देवभाव के सहारे ही अनंतकाल से यह भारत देश व हमारी सनातन संस्कृति के साधक दान, सेवा, त्याग, शांति के साधक बने। स्वयं भूखे-नंगे रहकर भी किसी भूखे पेट को रोटी और नंगे बदन को कपड़ा देने की शक्ति व साहस यदि इस संस्कृति का हर अनुयायी रखता है। जरुरत मंद के लिए सदैव खडे़ रहने, दूसरों की सेवा के लिए अपना हित काट कर भी देते रहने के भाव रखता है, तो इस देवभाव से जोड़े रखने में गुरु ही हमारे सहायक एवं सचेतक रहे हैं।

आज पुनः ऐसी ही गुरु परम्परा की जरूरत है। जिससे हमारे सनातन संस्कृति में विश्व को नई दिशा और दशा देने की सम्पूर्ण क्षमता जगे, समर्थ सद्गुरुओं से मानवता लहलहा उठे। विश्व भर से छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, पिछड़े-विकासशील और अविकसित का भेद मिटे। नियंता के इस

सम्पूर्ण मंगल का संकल्प गुरुओं-ऋषियों के सदप्रयास से ही सम्भव होगा। आइये हम सब गुरुपर्व पर ऐसी श्रद्धाभावना अंतःकरण में जगायें, यही युग की आवश्यकता है।

गुरु पूर्णिमा की आप सभी को बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनायें।
डॉ.अर्चिका दीदी 

Live | Day 1 | गुरुपूर्णिमा सत्संग | 30 June 2023 | Sudhanshu Ji Maharaj | Dr. Archika Didi | Delhi