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जन-जन को बलिदान भाव से जोड़ती भगवद्गीता

जन-जन को बलिदान भाव से जोड़ती भगवद्गीता

जन-जन को बलिदान भाव से जोड़ती भगवद्गीता

पूज्य सुधांशु जी महाराज कहते हैं-जो लोग कठिनाई में अवसर देखते हैं, वे ऊंचाई पर पहुंचा करते हैं। इन परिस्थितियों में ही स्वास्थ्य पर ध्यान जाता है, मस्तिष्क का नवीनीकरण होता, प्राण शक्ति को प्रबलता मिलती है, बेहतरीन योजनाएं बनती हैं। इस प्रकार अपने को बेहतर करने, मुश्किलें आसान बनने वाले।

योग की बात आते ही व्यक्ति पद्मासन लगाकर नाशाग्र ध्यान की बात सोचने लगता है। यद्यपि यह भी योग की एक पद्धति है, लेकिन यह ऐसी सर्वजनीन नहीं है कि आम व्यक्ति भी इस अवस्था को पाकर जीवन को व्यावहारिक स्तर पर जी सके। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से श्रीमद्भगवद गीता में आम जनमानस को बलिदानी भाव के साथ निज स्वभाव में जीने की प्रेरणा से जुड़े योग का संदेश देते हुए कहते हैं। तपस्वियों, शास्त्र ज्ञानियों और सकाम कर्म करने वालों की अपेक्षा ‘योगी’ श्रेष्ठ माना जाता है, इसलिए हे अर्जुन! तू ‘योगी’ बन। अपने अंतःकरण से जो मुझको निरंतर स्मरण (दिव्य प्रेमाभक्ति) करता है, ऐसा मेरे द्वारा परम-योगी माना जाता है। आइये! योगियों की परिभाषा को गहराई से समझे हैं-
विपरीत परिस्थितियों में अविचलताः
यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्
अर्थात् हे पार्थ वे क्षत्रीय सुखी हैं, जिन्हें संयोग से युद्ध लड़ने का अवसर मिलता है। युद्ध क्षत्रियों के लिए स्वर्ग का द्वार है। न्याय के लिए युद्ध में ही उसका गर्व और गौरव है। अगर वे युद्ध जीते अथवा युद्ध में लड़ते हुए शरीर समाप्त हो जाए, तो भी उसके लिए स्वर्ग ही है। वास्तव में श्री कृष्ण का दिया संदेश विश्व मानवता के लिए है, जिसमें श्रेष्ठतम उच्च ऐसे व्यक्तित्व खड़े करना था, जो किसी भी विपरीत परिस्थितियों का अपने जीवन संघर्षों से सामना करे घबराएं नहीं। उसे जीवन का एक सुंदर अवसर मानें। पूज्य सुधांशु जी महाराज कहते हैं-जो लोग कठिनाई में अवसर देखते हैं, वे ऊंचाई पर पहुंचा करते हैं। इन परिस्थितियों में ही स्वास्थ्य पर ध्यान जाता है, मस्तिष्क का नवीनीकरण होता, प्राण शक्ति को प्रबलता मिलती है, बेहतरीन योजनाएं बनती हैं। इस प्रकार अपने को बेहतर करने, मुश्किलें आसान बनने वाले। असली कर्म योद्धा का अवसर वाला व्यक्तित्व निखरता है। यहां भगवान श्री कृष्ण युद्ध लड़ने को भी अवसर इसीलिए बताते हैं, क्योंकि जीवन में हर पल युद्ध ही तो चल रहा होता है।’’
अपयशी कौनः
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सघ्ग्रामं न करिष्यसि
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमावाप्स्यसि
जबकि धर्म युद्ध को नहीं लड़ने वाला अपने कर्तव्य से पतित हो, स्वधर्म की कीर्ति खोकर पाप को प्राप्त होता है। वास्तव में योद्धाओं के बीच एक अच्छा योद्धा साबित होने में कीर्ति है। आश्चर्य कि अर्जुन जैसा महारथी जिसने पाश्वपत अस्त्र लेने के लिए बड़ी कठिन तपस्या की हो, शिव जी के साथ भी युद्ध करने के लिए खड़ा हुआ हो, ऐसा योद्धा आवश्यक युद्ध के समय हृदय की दुर्बलता बस भावावेश में आकर भिक्षा माँगकर खाने, जंगल जाकर बसने की बात करे, तो उसके इस भाव को उसे उसका असली स्वभाव कैसे माना जा सकता है। स्वभाव के विपरीत होने के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण इसे अकीर्ति वाला कर्म कहते हैं। भगवान अर्जुन से कहते हैं ‘‘ततः स्वधर्म कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि’’ कि तुम अपने स्वधर्म को छोड़ दोगे तो अपनी कीर्ति को मारकर बड़े पाप के गर्त में गिर जाओगे। संसार के हर व्यक्ति को हर क्षण ऐसे ही एक कृष्ण की जरूरत पड़ती है।
वास्तव में गुण कर्म स्वभाव से युक्त हर व्यक्ति का एक स्वधर्म होता है। जन्म भी इसी स्वधर्म अर्थात कर्म और संस्कार के आधार पर प्राप्त माना जाता है। आगे व्यक्ति जिन संस्कारों के साथ पलता है, वही उसका वर्ण बनता है। वह संस्कार ही उसके सबकॉन्शिस माइण्ड में स्वभाव बनकर उसके चित्त में अंकित हो उस व्यक्ति का एक गुणधर्म बनता है। इस गुणधर्म से व्यक्ति अलग नहीं जा सकता, आदतें उसको खींच कर बार-बार वहीं लाएंगी ही। श्री कृष्ण कहते हैं कि गुण कर्म स्वभाव के अनुसार जो व्यक्ति के दायित्व हैं, उनसे भागना सबसे बड़ा पाप कर्म हैं।
हर बलिदानी योगीः
द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमंडल भेदिनौ।
परिव्राट योग युत्तफ़श्च रणे चाभि मुखो हतः।।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-दो लोग इस दुनिया में सूर्य मण्डल का भेदन करते हुए ब्रह्म मण्डल तक पहुंचते हैं, एक योगी अर्थात् ऐसा व्यक्ति जो संसार से विरत्तफ़ होकर अपने साधना द्वारा ब्रह्म से अपना सम्बन्ध जोड़कर जीवन व्यतीत करता है। अर्थात् योगाग्नि में अपने आप की आहुति देने वाला दूसरा वह जो रण में नियमों, अनुशासनों का पालन करते हुए अपने देश व मानव धर्म के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर देता है। कहते हैं बलिदान भाव से प्राणों को छोड़ने वाले लोग सूर्य मण्डल का भेदन करते हुए ब्रह्म मण्डल तक पहुंच जाते हैं और स्वर्ग के अधिकारी बनते हैं। दूसरे शब्दों में कि ‘‘जो व्यक्ति अपने तन-मन-भाव-बुद्धि-चेतना की कर्मशीलता द्वारा जीवन की सार्थकता सिद्ध करते हैं, वह योगी ही होते हैं।
अर्थात् किसी देश को स्वतंत्र कराने, शीर्ष तक पहुंचाने में जो लोग नींव का पत्थर बनकर सर्वस्व बलिदान देते हैं, वे योगी कहलाते हैं। विराट टिका हुआ भवन उन्हीं के प्राणों की शक्ति पर टिका होता है। इसीलिए इन नींव के पत्थरों की प्रार्थना हर दिन आवश्यक है। इससे ऋषियों का आशीर्वाद बलिदानी पुरुषों का आशीर्वाद, बरसता है और परिवार में संस्कार और संस्कृति स्थिर होती है। पितरों, गुरुजनों के आदर्शों और धर्म, जीवन के नैतिक मूल्यों को सुरक्षित रखने के लिए लोगों ने अपना पूरा जीवन लगा दिया। ये सभी बलिदानी हैं।
यही असली योग है। योग में असफल हुआ मनुष्य स्वर्ग आदि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर उनमें अनेकों वर्षों तक जिन इच्छाओं के कारण योग-भ्रष्ट हुआ था, उन इच्छाओं को भोग करके फिर सम्पन्न सदाचारी मनुष्यों के परिवार में जन्म लेता है। अथवा स्थिर बुद्धि वाले विद्वान योगियों के परिवार में जन्म लेता है, किन्तु इस संसार में इस प्रकार का जन्म निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है।
हे कुरुनन्दन! ऐसा जन्म प्राप्त करके वहां उसे पूर्व जन्म के योग संस्कार पुनः प्राप्त हो जाते हैं और उन संस्कारों के प्रभाव से उसके परमात्मा रूपी परम सिद्धि को प्राप्त करने के उद्देश्य फिर से प्रारम्भ हो जाते हैं।
पूर्व जन्म के अभ्यास के कारण वह निश्चित रूप से परमात्मा पथ की ओर स्वतः ही आकर्षित हो जाता है। ऐसा जिज्ञासु ‘योगी’ शास्त्रों के अनुष्ठानों का उल्लंघन करके भी योग में स्थित हो ही जाता है।