पथ भ्रांति, आत्मग्लानि, तोड़-फोड़ और विध्वंस से दहकते, नशे और अन्य लतों में डूबते, जीवन की समस्याओं से भागते, शिकायत करते, कुण्ठाओं से भरे, अनुशासन भंग करते तथाकथित युवकों सहित नई पीढी को देखकर मन अवश्य दुःखी होता होगा। यही नहीं अश्लीलता की आग में देश के इन भावी कर्णधारों के झुलसते मन और मस्तिष्क, तरह-तरह के दुर्व्यसनों में डूबी आंखें देख अंतःकरण प्रश्न तो करता होगा कि क्या हमारी जवानी व युवा शक्ति की यही पहचान है?
क्या इन्हीं के सहारे देश में क्रांतियां सम्भव हुई हैं? हमारे ऋषियों ने जिस युवकत्व को परिभाषित किया था, वह तो इसमें कहीं दूर-दूर तक नहीं दिखता। वैसे यह भी सच है कि संसार के प्रत्येक सृजन का नेतृत्व नई पीढ़ी के युवाओं ने ही किया है, जब हम कहते हैं आज पुनः देश को युवाओं की आवश्यकता है, तो एक प्रश्न और खड़ा होता है कि आखिर ऐसे युवा आयेंगे कहां से? तो दृष्टि जाती है भारत की आदर्श परिवार व्यवस्था, ऋषि संवर्धित परिवार परम्परा पर। परिवार को हमारे संतों, अग्रगण्यों ने समाज, देश, विश्व निर्माण लायक नर रत्न गढ़ने की प्रशिक्षण शाला, शोधशाला, निर्माणशाला कहकर संबोधित किया है।
परिवार व्यवस्था हमारे देश की रीढ़ रही है, देवमानव पैदा करने और उन्हें गढ़ने वाली इसी टकशाल के बलपर भारत विश्व में सिरमौर रहा। जब तक परिवार संस्कारशाला की भूमिका निभाने वाले केंद्र रहे, इसके कारण यहां के न्याय, स्वास्थ्य, स्वावलम्बन, शिक्षा, पर्यावरण, सहकारिता, राजतंत्र से लेकर हर तंत्र में सम्मान, संस्कार, सेवा, प्रेम, दया, करुणा की सुगंधि समुचित मात्र में व्याप्त रही और यहां के निवासी अभाव में भी शांतिपूर्वक, खुशी और प्रसन्नता से जीवन यापन करते थे। साथ ही भरपूर धन-सम्पदा होने पर इतराते भी नहीं थे, सद्गुणों से भरपूर युवा देशवासियों के श्रम-पुरुषार्थ से देश में दूध, दही, अन्न-जल प्रचुर मात्र में विद्यमान था।
प्रातःकाल जागरण, देवयजन, यज्ञानुष्ठान, माता-पिता एवं बड़े-बुजुर्गों की सेवा, उनके चरण स्पर्श कर आशीष पाने, अतिथि सेवा, गुरु-संतजनों, विद्वानों का सम्मान करने, जीव-जन्तुओं-कीट पतंगों पर दया करने, परस्पर अपनत्वपूर्ण पवित्र व्यवहार करने, भक्ति-उपासना स्तुति करने, कर्म पर विश्वास और कर्मफल को स्वीकार करने आदि दिव्य व देव परम्परायें हमारे परिवार की विशेष देन थीं। इन सद्गुणों को परिवार के बीच संताने हंसते-खेलते अपने जीवन में ढाल लेते और भविष्य में जीवन-समाज दोनों की प्रगति में सहायक बनते। इसीलिए विश्व में भारत देवत्व से भरा देश रहा और विश्व के लिए प्रेरणा केंद्र रहा।
इसी प्रकार सेवा परायणता का विज्ञान यहां परिवारों के हर सदस्य के मन और प्राणों में बसता रहा। खुद के हित से पहले दूसरे के हित का ध्यान रखने की परम्परा हमारे परिवारों में व्याप्त संस्कारों की ही तो देन थी। परिवार में प्रचलित गौग्रास निकालने की परम्परा, गौसेवा, चिड़ियों को दाना डालने व जीवों का संरक्षण करने की परिपाटी से हमारे घर के बच्चे परोपकार-सेवा-सहयोग की आदत सीखते थे और बड़े होकर बाग-बगीचे लगवाना, कुएं-तालाब खुदवाना, अन्न क्षेत्र चलवाना, गौसेवा, अस्पताल, धर्मशाला, देवालयों का निर्माण, विद्यालयों में शिक्षा आदि जन कल्याणकारी कार्यों में समर्पित होकर जीवन पर्यन्त जुटते थे। लोग अपना धन, साधन, समय खर्च करके यह जनहितैषी सेवा कार्य करते। ईमानदारी और अपनत्व परिवार का आदर्श थी, परिवार में सुगंध की तरह व्याप्त सत्य, न्याय और सदाचार-विचार एक दूसरे को बांध कर रखने में सहायता करते थे। सदियों से भारतवासी अपने इन्हीं पारिवारिक मूल्यों के बल पर आज तक गौरवान्वित महसूस करते आ रहे हैं।
आस्तिकता एवं देवत्व हमारी ऋषि अनुसंधित परिवार परम्परा का प्राण था, इसी का विस्तार भारत की सम्पूर्ण पुण्य भूमि में देखने को आज भी मिलता है।
वृक्ष वनस्पतियों, नदी-पर्वतों की पूजा परम्परा, लोकहित-देशहित के लिए धीर-वीर सपूतों द्वारा हंसते-हंसते फांसी का फन्दा चूम लेना, त्याग-बलिदान की देव प्रवृत्तियां परिवार की प्रयोगशाला की उपज थीं। श्रद्धा के बल पर पत्थर को भी देवता बना लेने की क्षमता व्यक्ति में परिवारों के बीच ही पैदा हुई और जीवन के हर कदम पर चमत्कारी रही। देश में श्रद्धावान सपूत जैसे आचार्य शंकर को ही लें, जिन्होंने गरीबी से दुखी जनों को देखकर श्रीसूक्त का वाचन कर मां लक्ष्मी को प्रकट कर लिया, महर्षि बाल्मीकि ने भगवान राम की संतानों को अपने आश्रम में गढ़ने का वीड़ा उठाया, रामकृष्ण परमहंस ने पत्थर की मूर्ति में श्रद्धा के बल से माँ काली को अपने साथ भोजन कराया। इस प्रकार माता, पिता, गुरु, धर्म और सदाचार के प्रति श्रद्धा जगी तो लोक-परलोक सुधरने लगे, कर्म के प्रति श्रद्धा जगी तो जीवन आत्मविश्वास से भर उठा और अंतःकरण में सत्य को धारण करने की क्षमता प्रकट हुई, प्रत्येक कर्म जीवन में नित्य नया निखार लाने लगा, हर असंभव सम्भव बनने लगे। इस प्रकार जीवन में स्वास्थ्य, ऐश्वर्य और ज्ञान में अतुल्य अभिवृद्धि परिवार में मिले श्रद्धापूर्ण वातावरण का कमाल रहा।
भौतिक सुख-साधन, सम्पत्ति थोड़े से समय व अल्पमात्र बुद्धिबल के सुनियोजन से कहीं भी कमाई जा सकती है, पर गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता परिवार के संस्कारमय वातावरण में ही सम्भव है। परिवार में ध्यान-उपासना व सुमिरन-साधना, सदविचार-सर्दकर्म, सदप्रवृत्तियों एवं सद संस्कारों की निरंतरता के बीच गढ़ी गयी संताने ही विभूतिवान बनती हैं और अपनी समस्त विभूतियों का सही नियोजन करने के लिए योग्य हो पाती हैं, जिससे जीवन और समाज दोनों सौभाग्यशाली बनते हैं। आज हम सबको मिलकर परिवार के बीच ऐसे संस्कारों वाले वैभव को पुनः वापस लाने की आवश्यकता है, जिससे हमारा समाज, देश और विश्व उच्च आदर्शों से पुनः भर सके।
आइये हम सब मिलकर पुनः परिवार में संस्कार जगायें, जिससे भावी पीढ़ी की भावनाओं-वृत्तियों में उच्चस्तरीय उदारता का रूपान्तरण हो और अधोगामी प्रवृत्तियों से बचें, समाज पुनः सदाशयता, सहकारिता, मितव्ययिता, अपनत्व, सहिष्णुता, परस्पर प्यार-सम्मान को धारण कर सके, जिससे धरती पर फिर से स्वर्गीय वातावरण लहलहा उठे।