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ईश्वर पर विश्वास, परोपकार और श्रेष्ठता ही मानव धर्म

ईश्वर पर विश्वास, परोपकार और श्रेष्ठता ही मानव धर्म

ईश्वर पर विश्वास, परोपकार और श्रेष्ठता ही मानव धर्म

जैसे अबोध बालक का अपने माता-पिता पर पूरा विश्वास ही उसे भयमुक्त कर देता है वैसे ही हमें भी परमेश्वर पर पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा, आस्था व विश्वास होनी चाहिए

ईश्वर पर विश्वास जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धि है। इस अवस्था में जैसे अबोध बालक माँ की गोद में पहुंच कर या पिता की उंगली पकड़ लेने पर पूरी तरह आश्वस्त रहता है। अपने माता-पिता पर पूरा विश्वास है और यह विश्वास ही उसे भयमुक्त कर देता है। ठीक इसी तरह हमें भी परमेश्वर से पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा, आस्था व विश्वास का रिश्ता बना लेना चाहिए। रिश्ता बनाने से होने वाले लाभ को इस तरह समझते हैं कि जैसे ‘‘एक गरीब साधारण सी लड़की किसी राजा को पति बनाकर समर्पण कर देती है, तो उसकी रानी हो जाती है, सारी संपत्ति की मालकिन बन जाती है। ऐसे ही भगवान से रिश्तेदारी कर लेने में लाभ ही लाभ है।

विश्वास और परोपकार का मार्ग

इसी प्रकार परोपकार हमें सदैव यह याद दिलाता है कि प्रत्येक प्राणी में उसी परमात्मा का अंश है, अतः सबके साथ परस्पर प्रेम व सद्भाव का व्यवहार करते हुए सबकी उन्नति का प्रयास करना चाहिए। दूसरों के साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं करना चाहिए जो हमें स्वयं अपने लिए पसंद न हो। इसके लिए सज्जन व्यक्तियों को संगठित करके संसार में व्याप्त अनीतियों व कुरीतियों से लोहा लेने में सदैव तत्पर रहना चाहिए और सृजनात्मक गतिविधियों को प्रोत्साहन देकर सभी की भलाई के कार्य सतत करते रहने चाहिए। क्योंकि ईश्वर पर विश्वास और परोपकार के मार्ग पर चलकर ही मनुष्य श्रेष्ठता को प्राप्त कर पाता है।

देखते हैं आज लोग भगवान को भूलकर स्वार्थ में अंधे होकर हर प्रकार की अनीति में लगे हुए हैं। चारों ओर भ्रष्टाचार, बेइमानी, अनावश्यक भागमभाग है। अनीति से लोग लाखों-करोड़ों की कमाई करने पर तुले हैं, पर असल में वे जीते जी अपने लिए नरक का निर्माण कर रहे हैं। इसीलिए वेद व वैदिक संदेश परोपकार का संदेश देते हैं। हम गायत्री मंत्र के ‘वरेण्यं’ शब्द को ही लें, जो नीचता, विलासिता, स्वार्थपरता के निकृष्ट मार्ग से बचाकर आत्मगौरव, सदाचार, महानता व परमार्थ के श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की हमें प्रेरणा देता है। यह श्रेष्ठ मार्ग ही सर्वकल्याणकारी है।

श्रेष्ठ पुरुष भी वही होते हैं जो बिना किसी स्वार्थ के केवल दूसरों की भलाई करना अपना धर्म समझते हैं। दूसरों को कष्ट देखकर उसके निराकरण में प्राणपण से जुट जाते हैं। ऐसे लोग देवकोटि में गिने जाते हैं। ऐसे लोग अपना भी कार्य संवार लेते हैं और दूसरों का भी कार्य बना देते हैं। किसी भी व्यक्ति में दूसरों का उपकार करने की जितनी अधिक भावना होती है, उतनी ही उसमें मनुष्यता जागृत होती है। वे ही जीवन में यशस्वी होते हैं।

 

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