दूसरों से तुलना का रोग !
आज का आदमी हर कुछ अपने अधीन कर लेना चाहता है, वह व्यक्ति हो अथवा वस्तुएं। यही कारण है कि हर क्षण दूसरों की ओर उसकी नजरें लगी रहती हैं। दूसरों के साथ तुलना वाली नजरें। दूसरों की वस्तुओं के साथ, दूसरों के फैशन-पहनावे, रहन-सहन के साथ, दूसरों के पद-प्रतिष्ठा सहित अनेक प्रकार की गतिविधियों के साथ तुलना और खीझ में जिन्दगी गवायें दे रहा है। और तो और जब उसे तुलना के लिए कुछ नहीं मिलता, तो अपनी ही गाढ़ी कमाई से खरीदी गयी वस्तुओं की कमियां निकालने में व्यक्ति जुट जाता है। इसके चलते वह व्यक्ति इस मनोदशा में आ जाता है कि अपनी वस्तुएं, अपने उपलब्ध श्रेष्ठ संसाधन तक को देखकर वह हीनता से भर उठता है। यहीं से उसका जीवन दुख-हताशा, निराशा, खीझ का शिकार होने लगता है।
यह चिढ़न-घुटन उसे अपनों के साथ सही व्यवहार करने तक में रोड़ा बन जाती है। परिणामतः बात-बात में अपनों से उलझने, क्रोध, दुर्व्यहार, उपेक्षा, ताने आदि देने से वह नहीं चूकता और इस प्रकार अपने तुलना करने के रोग को लेकर पैदा हुई खीझ के चक्कर में अपने प्रियजनों तक को खोने लगता है। आज के समाज का यह दौर ऐसे दुर्भाग्यशालियों से भरता जा रहा है।
‘‘आज के युग में लोंगों के जीवन में बढ़ते तनाव, सच्ची खुशी के गायब होने, जीवन में रसहीनता आने, ईर्ष्या-द्वेष-कुढ़न आदि दुनिया भर के दुःख एवं संतापों की आग में तपते लोगों का कारण है उनके द्वारा दूसरों के साथ अपनी तुलना करना और अपने जीवन को यथार्थभाव से न देखना। साथ ही जीवन चलाने के लिए परमात्मा द्वारा प्राप्त समुचित संसाधनों के लिए उसके प्रति धन्यवादी भाव न रखना।’’
वास्तव में इन असंख्य दुःख-संतापों की आग में तपते लोगों को इस दुःखद मनोदशा से बाहर निकालने की अत्यंत आवश्यकता है, जिससे समाज को सुखी-संतोष-शांतिप्रियता से भरा जा सके। इसका एक ही रास्ता है लोगों के अंतःकरण में श्रद्धा-भावना जगाना, उन्हें अपने जीवन के सद्गुणों पर और प्राप्त संसाधनों की पर्याप्तता की अनुभूति कराना। योग, ध्यान, प्रार्थना, उपासना, सेवा, भक्ति आदि से व्यक्ति को जोड़ना। जिससे अपनों के बीच रहते हुए तरह-तरह की काल्पनिक चोट से आदमी के रोते हुए दिल को सहारा मिले और समाज अनावश्यक काल्पनिक पीड़ाओं से बाहर आकर परमात्मा की गोद में बैठकर सुकून अनुभव करना शुरू कर सके।
मनोविश्लेषक कहते हैं कि ‘व्यक्ति में दूसरों के साथ तुलना करने की स्वाभाविक वृत्ति है, पर अपने समय के सदुपयोग की शक्ति खो चुके लोगों के जीवन में तुलना की दृष्टि नकारात्मक धारा की ओर प्रवाहित होने लगती है, तब वह दूसरों की श्रेष्ठता को देखकर ईर्ष्यालु बन जाता है। दृष्टि के वस्तुओं-संसाधनों पर सिमटने से जीवन में तुलनात्मक कुढ़न पैदा होती है। ऐसी अवस्था में पहुंचे व्यक्ति की सोच में सकारात्मकता लाने की दिशा में लोकव्यवहार सम्बन्धी समुचित प्रशिक्षण की आवश्यक पड़ती है, जिससे उसमें अपने समय एवं प्राप्त साधन के एक-एक अंश के सकारात्मक प्रबंधन करने की आदत जन्म ले सके। यदि व्यक्ति की समझ में लाया जा सका कि उसका समय मूल्यवान संपदा है, उसका सदुपयोग करके सबकुछ पा सकते हैं, तो वह फिर तुलना करके हीनता व दूसरों के ओछेपन में आने से बचने लगेगा।’
गौर करें तो हर व्यक्ति के पास चौबीस घंटे का समय भगवान ने दे रखा है, अमीरी-गरीबी उसी समय के सदुपयोग, दुरुपयोग करने का नतीजा भर है। बस जागरूक होकर समझने की जरूरत है कि अपने दिनभर के समय का किस रूप में सदुपयोग करते हैं और अपनी मनोदशा को कैसे संतुलित रखते हैं। एक दिन में क्या-क्या करते हैं, एक-एक क्षण को किस प्रकार व्यतीत करते हैं, इसीप्रकार हर दिन की सुहावनी सुबह को हम किसके खाते में डालते हैं, अर्थात इसे आलस्य-प्रमाद में गवांते हैं अथवा परमात्मा के चरणों में सौंपकर उपासना, साधना, योग-ध्यान, प्रार्थना-सेवा, स्वाध्याय आदि करते हुए सही योजनापूर्ण कार्यों में लगाते हैं। यह समीक्षा हर किसी के लिए आवश्यक है।
इस दृष्टि से प्रातः से लेकर सायं तक के लिए व्यक्ति को प्रातः उठते ही योजना बना लेनी चाहिए। ध्यान रहे प्रातः बेला में ईश्वर उपासना, मंत्रजप, प्राणायाम, योग एवं आसन का अभ्यास करके दिन भर उत्साह उमंग से व्यक्ति भरा रहता है, यदि दिन ढलते वह थकावट सी महसूस करने लगे तो, इस थकावट आदि से कैसे निपटना है, इसका भी ख्याल अपनी दिनचर्या को बनाते समय स्पष्ट कर लेना चाहिए। कुछ लोग अपने खाली समय को मनोरंजन से जोड़ लेते हैं, लेकिन महापुरुष स्तर के व्यक्तित्व हाथ में प्राप्त हुए कार्यों में परिवर्तन करके, योग निद्रा आदि से अपने मन को उत्साहित बनाने पर जोर देते हैं।
इसी प्रकार रात्रि शयन के लिए होती ही है, लेकिन नींद गहरी आये, इसकी भी कार्य योजना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि उथली, टूटी हुई नींद व्यक्ति को ऊर्जाहीन कर देती है, इसलिए सोने से पूर्व मन और मस्तिष्क को शांत-प्रसन्न, सद्विचारों से भरने का प्रयास करने से गाढ़ी नींद आयेगी और अगली सुबह पुनः ताजगी के साथ उठ सकेंगे।
इस तरह जो व्यक्ति अपने सम्पूर्ण रात-दिन का सही निर्धारण करके जीवन जीने का अभ्यास करता है, उसे किसी दूसरे से तुलना का अवसर ही नहीं मिलता। इस प्रकार क्षण-क्षण के सदुपयोग से मस्तिष्क प्रखर-शांत बनता व पूरी जिंदगी सुखद होती चली जाती है और फिर न किसी दूसरे के साथ तुलना का समय बचता है, न जीवन में कुढ़न-खीझ पैदा होगी। तो क्यों न तुलना मुक्त जीवन के ये सभी प्रयोग अपनायें, जीवन को सुख-शांति-संतोष, कर्तव्यशीलता से भरें।