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क्यों न मृत्यु का उत्सव मनाते हुए जीवन को जियें

क्यों न मृत्यु का उत्सव मनाते हुए जीवन को जियें

क्यों न मृत्यु का उत्सव मनाते हुए जीवन को जियें

मृत्यु किसी की भी हो, किसी जीव-जन्तु, वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी, पतंगे, स्वयं मनुष्य अथवा समय की मुत्यु हो, मौत के बाद कितना प्रयत्न क्यों न किया जाय, न तो उसे उसी रूप में देखा जा सकता है, न पुनः उस काल को भोगा जा सकता है।

क्यों न मृत्यु का उत्सव मनाते हुए जीवन को जियें

मृत्यु किसी की भी हो, किसी जीव-जन्तु, वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी, पतंगे, स्वयं मनुष्य अथवा समय की मुत्यु हो, मौत के बाद कितना प्रयत्न क्यों न किया जाय, न तो उसे उसी रूप में देखा जा सकता है, न पुनः उस काल को भोगा जा सकता है। वास्तव में मृत्युकाल भी अद्भुत है, जब वह उपस्थित होता है, तो अंतःकरण में शेष बचती हैं पिछली अच्छी-बुरी यादें और केवल आर्तनाद, गिड़गिड़ाहट, पछतावा।

अंत में पछतावा न हो

सच में मनुष्य होकर यदि हम समय को गवांकर और अंत में पछता रहे हैं, तो वह वास्तव में हमारे द्वारा अपने ऋषियों का अपमान ही है। क्योंकि हमारे ऋषियों ने मनुष्य को जीवन देने से पहले उसे मृत्यु के स्वागत की तैयारी का संदेश दिया है।

जीवन को ही मृत्यु बनाकर जीने का संदेश

जीवन को ही मृत्यु बनाकर जीने का संदेश कह सकते हैं इसे। लेकिन उस विधि से जीवन न जीने के चलते ही अंत में पछतावा हाथ आता है। मृत्यु का दौर ही ऐसा है, कोई कितना भी समर्थ क्यों न हो, कितनी भावुक प्रार्थना क्यों न कर लेता हो, कितने देवताओं से वह क्यों न परिचित हो, कितने प्रभावशाली मंत्रें की जानकारी उसे क्यों न हो। हर प्रयास, पुरुषार्थ व याचना काम आती नहीं।

क्षण भर के लिए भी जीवन नहीं बचा सकता

लाख गिड़गिड़ायें कि काश जीवनकाल थोड़ा और क्यों न मृत्यु का उत्सव मनाते हुए जीवन जियें बढ़ जाता। वास्तव में जीवन के बिदाई की बेला दुखद होती ही है, भले उस पल बड़े-बड़े डॉक्टर, शोधकर्ता, वैज्ञानिक, प्रभावशालियों की फौज क्यों न सामने खड़ी हो, कोई क्षण भर के लिए भी जीवन नहीं बचा सकता।

हम जीवन गवां तो नहीं रहे

यही है समय का मूल्य, समय का महत्व, लेकिन इस महत्व की अनुभूति इसी समय पर होती है। इसके बावजूद मनुष्य जीवन भर सबकुछ भुलाकर सामान्य ढर्रे की जिंदगी में लगा रहता है। हम वयस्क, युवा, जवान, वृद्धा किसी भी अवस्था में क्यों न हों, जीवन रूपी एक-एक क्षण को यूं ही बिखेर ही तो रहे हैं। अनजाने बेहोशी में जीते हुए जीवन ही तो गवांते हैं। जीवन अर्थात समय, जीवन का हर क्षण विखरने का आशय कि हम जीवन गवां रहे हैं।

आखिर हमने क्या गवांया?

तो क्यों न हम सब आज से ही सावधान हो लें। आइये इसी क्षण हम अपने जीवन की बीती स्मृतियों पर दृष्टि डालकर देखें, कहीं हृदय में पछतावा भरी टीस तो नहीं उभर रही है। यदि ऐसा है तो सोचें कि आखिर हमने क्या गवांया? निश्चित ही हर सच्चे अंतःकरण में अंदर से अवश्य उत्तर आयेगा और साथ में आने वाले समय को सम्हालने की कोई योजना भी मन में उठेगी।

परमात्मा तक पहुंचने का राजमार्ग

वर्तमान जीवन को संजोने का कोई ढंग अनुभव हो रहा है, तो उसे ईश्वर को साक्षी मानते हुए सम्हालें। अपने गुरु को धन्यवाद दें कि तुमने रास्ता दिखाया है और लगा दें अपने समय को ईश्वर व गुरुसत्ता की प्रेरणा, अनुशासन में बंध कर उपासना, सिमरण, साधना, सेवा, सत्संग में। निश्चित ही जीवन संतोष से भर उठेगा। यही है मृत्यु का उत्सव मनाते हुए जीना, परमात्मा तक पहुंचने का राजमार्ग भी यही है।

डॉ अर्चिका दीदी