उपनिषदकार कहता है व्यक्ति स्वयं सारा जीवन आनन्द प्राप्ति की कामना में भागता रहता है, संसार के सुख-साधन उसी के लिए जुटाता है, पर उन साधनों में आनन्द नहीं है, आनन्द का सागर केवल परमात्मा है। जैसे नदी समुद्र में पूर्णता पाती है, अतः उसी ओर जाने की कामना करती है, उसका आनन्द समुद्र में विलीन होने में है। ज्योति सूर्य में विलीन हो जाती है, उसी तरह मनुष्य अपने को भुलाकर परमात्मा में विलीन हो जाएं, इसी में पूर्णता है।
ध्यान रहे जो पूर्ण है, उसके भी कुछ विशेष लक्षण हैं। जो पूर्ण होगा, वह तृप्त होगा। जो प्रेमपूर्ण-करुणामय होगा। वह सदा तृप्त रहेगा। उसके निकट बैठने का मन कहेगा क्योंकि एक मात्र परमात्मा ही उसका लक्ष्य है।
परमात्मा से जुड़ा हुआ भक्त ही कह सकता है कि सारा जग रूठे, मेरे प्रभु! तुम न रूठना। वह समर्थ होते हुए भी कहता है तेरे बिना इस दुनिया में मेरा कोई सहारा नहीं है। भगवान के निकट पहुंचा ऐसा व्यक्ति श्रद्धा भक्ति के दीप जलाकर भावनाओं के फूल भगवान को चढ़ाता है। ऐसे परमतत्व का बोध जीवन में घटित होने के लिए गुरु ढाल बनता है, सहारा बनता है। क्योंकि परमात्मा को पकड़ना हर किसी के लिए भले सम्भव न हो, पर गुरु को पकड़ना कठिन नहीं है। गुरु के पास परमात्मा से जोड़नेवाली भाव तरंगें, विधि-नियम होते हैं। जीवनचर्या होती है। परमात्मा से प्राप्त किये हुए उसके पास कुछ अनुदान होते हैं।
गुरु अपनी उसी दृष्टि से शिष्य को देखता है, शिष्य में सम्भावनायें तराशता है, तलाशता है और तय करता है कि शिष्य के लिए कौन सा मार्ग तय करें। जैसे दान-सेवा-ध्यान-जप आदि-आदि। इसप्रकार गुरु कृपा पाने वाला शिष्य सदा मस्त रहता है, दुनिया के जंजालों में फंसता नहीं, सदा सुखी रहता है। अतः समझदारी है कि हम सेवा से जुड़कर गुरु व परमात्मा के हो जाएं।
गुरु कृपा-गुरु आशीर्वाद की छाया में कर्त्तव्य पूरे करते-करते शिष्य में परमात्मा की कृपा बरसने लगती है। नई ऊर्जा, नय उल्लास-उत्साह, मन व हृदय में प्रसन्नता भरने लगती है। जीवन से नकारात्मकता भागती है। व्यक्ति अंदर-बाहर से एक होने लगता है फिर जहां वह बैठता है, लोगों को उससे संतोष मिलता है। अतः गुरु के सहारे भगवान से ऐसी ही नव ऊर्जा वाली भक्ति मांगने वाले हम सब बने, पूर्ण श्रद्धा से, गहरी लगन से उसकी ओर बढ़ें, धीरे-धीरे सब द्वार खुलेंगे।
ध्यान रहे परमात्मा व गुरु कृपा मिलने पर भी जिंदगी में धूप-छांव रहेगी, हंसना और रोना साथ-साथ चलेगा। हर्ष-विषाद की लहरें चित्त के अन्दर हर पल उठेंगी, पर ऐसे में भी व्यक्ति के अंदर ईश्वर का भरोसा, उसी के चरणों में श्रद्धा-प्रेम भी बढ़ेगा। दुःख संकट तो टिकेगा ही नहीं। एक बार वह आपका हो गया तो जीवन झूम उठेगा। अंदर अनुभव होगा संसार के पदार्थों से मिलने वाली खुशी चिरस्थायी नहीं है। अपितु सदा रहने वाली वह खुशी प्रभु चरणों, गुरुओं और महानपुरुषों की शरण ग्रहण करने में ही है।
तब हर पल अनुभव होगा कि गुरु के रक्षा कवच और भगवान की दया से हर भंवर में किनारा मिलता है। यही सत्य भी है। तब जिसके अन्दर की सांसारिक गरीबी कभी कम नहीं होती, वह गरीबी भी गुरु कृपा से सदा के लिए मिट जाती है। जरूरत है उसे अपना बना लें, दुनिया अपने आप तुम्हारी बन जाएगी। इसके लिए भगवान के नाम का जाप, दान, सेवा, गौसेवा, रोगी सेवा, वृद्धों व असहायों की सेवा, देवतुल्य गुरु विचारों की सेवा आदि करें।
अपने ईश्वर का ध्यान करें, गुरु के मार्गदर्शन में परमात्मा की निकटता से जोड़ने वाले नियमों का पालन करें। गुरु सान्निध्य में सेवा का हर अवसर खोजें, उसके सत्संग से जुड़ें। उसके अनुष्ठानों को अपने जीवन का अनुष्ठान मानकर स्वीकार करें और विश्वास करें तब संसार के सारे चक्कर स्वयं समाप्त हो जाएंगे। जीवन में पूर्णता आयेगी।
इस ज्ञान द्वारा संसार के दुःखों से छुटकारा मिलेगा। शाब्दिक ज्ञान आपको पहचान करा सकता है, परन्तु अनुभूति नहीं करा सकता। सभी शास्त्रें, मन्दिरों और तीर्थों को अनुभूति स्तर तक जीवन्त रूप से गुरु ही ला सकता है। अनुभूति के साथ प्राप्त यह ज्ञान ही पूर्णता दिलायेगा।
कहते हैं जब तक सद्गुरु के चरणों में नहीं पहुंचेंगे, तब तक जीवन का एहसास नहीं होता। पर गुरु तक पहुंचने के लिए अहंकार को भी खोना पड़ेगा, सिर झुकाने की तैयारी करनी पड़ेगी। गुरु की बहुत सारी शर्तें स्वीकारना होगा। जीवन की सम्पूर्णता खोजने की कोशिश का यही मार्ग है।
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