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ध्यान से समाधि के सफर में आध्यात्मिकता का अभ्युदय

ध्यान से समाधि के सफर में आध्यात्मिकता का अभ्युदय

जब साधक किसी सद्गुरु की कृपा से साधना, ध्यान अभ्यास पूर्ण कर समाधि योग्य हो जाता है, बाहरी विचारों से मुक्त होकर अंतर्मुखी हो जाता है तथा वह अपनी आत्मा में ही लीन रहता है, तो समाधि घटित होती है। जब साधक ध्यान में बैठता है तो कुछ समय पश्चात उसे एक मौन जैसी अवस्था प्राप्त होती है। यहाँ उसे बेचैनी और उदासी सी अनुभव होती है। यहां पर साधक को अपने विचारों पर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए। विचार आ रहे हैं तो आने दो, जा रहे हैं तो जाने दो, बस दृढ़ बने रहो। यहीं साधक को धैर्य बनाए रखना चाहिए। इस मौन और उदासी के बाद ही हृदय प्रकाश से भरने लगता है।

ध्यान में शरीर भाव खोने लगेगा, लेकिन साधक को इससे डरना नहीं चाहिए, बल्कि खुश होना चाहिए कि वह परमात्मा प्राप्ति के मार्ग की ओर अग्रसर हो रहा है। तभी साधक को ब्रह्म भाव की अनुभूति होने लगेगी। शरीर में विद्युत ऊर्जा का संचार होने लगेगा। इससे कभी-कभी साधक के सिर में दर्द हो सकता है और यह बहुत ज्यादा भी हो सकता है। पीड़ा या दर्द यदि अधिक बढ़े तो चिंता नहीं करना चाहिए, क्योंकि जब चक्र टूटते हैं तो पीड़ा होती ही है क्योंकि चक्र आदि काल से सोये पड़े हैं। अतः इस पीड़ा को शुभ मानना चाहिए। साधक के शरीर में या मस्तिष्क में झटके लग सकते हैं। कभी-कभी शरीर कापने लगता है, लेकिन साधक को इस स्थिति से डरना नहीं चाहिए। कभी-कभी शरीर में दर्द होगा और चला जाएगा। इसको भी दृष्टा भाव से देखते रहना, क्योंकि यह भी अपना काम करके चला जाएगा।

यह कुंडली जागरण के चिह्न हैं, जहां शरीर तथा आत्मा आनंद से भरपूर हो जाती है। यहां साधक को चाहिए कि अपना कर्ताभाव पूर्ण रूप से छोड़कर बस देखता रहे जैसे कोई नाटक देखता है। अब ऊर्जा उर्द्धगामी हो। यदि आपका तीसरा नेत्र अर्थात शिवनेत्र नहीं खुला है, तो चिंता नहीं करना क्योंकि परमात्मा प्राप्ति की यात्र के लिए यह जरूरी भी नहीं है। उच्चस्थिति आने पर यह स्वतः ही खुल जाता है। समय से पूर्व शत्तिफ़ का खुल जाना भी हानिप्रद हो सकता है। यह धैर्य ही ध्यान-समाधि के रास्ते में खाद का कार्य करता है।

आध्यात्म के अनुभवों का बुद्धि के आधार पर विश्लेषण नहीं करना चाहिए। क्योंकि ध्यान में तरक्की कुछ इस ढंग से होती रहती है जैसे मिट्टी मे दबा बीज अंकुरित होता रहता है। लेकिन अंकुरण की तरक्की का पता तब चलता है, जब वह धरती की सतह से ऊपर आ जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे साधक ध्यान द्वारा ध्येय में पूर्णरूपेण लय हो जाता है और उसमें द्वैतभाव नहीं रहता है, ऐसी अवस्था में समाधि लगती है।

समाधि प्राप्त साधक दिव्य ज्योति एवं अ७ुत ताकत से पूर्ण हो जाता है। समाधि प्राप्त साधक सभी जीवों में प्रभु का वास देखने लगता है। समाधि घटित होने से साधक को मोक्ष मार्ग की यात्र की और बढ़ते हुए विभिन्न सिद्धियां भी प्राप्त हो जाती हैं, लेकिन साधक को परम मोक्ष प्राप्ति के लिए इनके प्रयोग से बचना चाहिए, अन्यथा यात्र और कठिन हो जाती है।

समाधि की स्थिति को प्राप्त करने वाला साधक रस, गंध, स्पर्श, शब्द, अंधकार, प्रकाश, जन्म-मरण, रूप आदि विषयों के परे हो जाता है। साधक गर्मी-सर्दी, भूख-प्यास, यश-अपयश, सुख-दुख आदि की अनुभूति से परे हो जाता है। ऐसा साधक जन्म-मरण से मुक्त होकर अमरत्व को प्राप्त कर लेता है। समाधि में ध्याता भी नहीं रहता और ध्यान भी नहीं रहता है। ध्येय और ध्याता एकरूप हो जाते हैं। मन की चेतना समाप्त हो जाती है और मन ध्यान में निहित हो जाता है। साधक प्रभु रूपी समुद्र में अपने आप को विसर्जित कर मुक्ति पा लेता है। समाधि में शारीरिक एवं मानसिक चेतना का अभाव रहता है। आध्यात्मिक चेतना जाग्रत हो जाती है।